समाचार माध्यमो द्वारा खबरों की शुचिता , उनको बढ़ा चढ़ा कर दिखाना, उनकी निष्पक्षता , और समाचारों के नाटकीकरण एक ज्वलंत मुद्दा बन चुका  है आज, समाज के आम हलको में . वो कहते है ना की साहित्य समाज का आइना होता है तो आप  लोगों को ऐसा नहीं लगता की इस समाचारों को हम तक पहुचाने वाले पत्रकारों की बोलचाल की भाषा भी कई बार प्रतिबिंबित होती है जनता पर. असल में कल  “नो वन किल्ड जेसिका ” देखी. एक बेहतरीन कोशिश एक सच को दिखाने की ,हालाँकि पूरी फिल्म में ऐसा लगता  रहा कि और बेहतर हो सकती थी.फिर भी एक मिनट के लिए भी उठने का मौका नहीं दिया प्रभावशाली दृश्यों  ने . सबकुछ एकदम वास्तविकता के एकदम करीब . शायद मेरे इस फिल्म के प्रति आकर्षण की  एक वजह उसका मीडिया आधारित  होना भी था .

वैसे मैं यहाँ बात फिल्म की नहीं  करुँगी . बल्कि उन सवालों की करुँगी जो इसे देख कर मेरे ज़हन  में ताज़ा हो गए .जो आज से १२ वर्ष पहले भी मेरी सोच का कारण थे और आज एक अरसा गुजर जाने के बाद भी वहीँ के वहीँ हैं.” क्या प्रभावी पत्रकारिता के लिए महिला पत्रकारों का  गालियाँ देना जरुरी है ?..बेशक आप कितने भी अंग्रेज़ बने पर गालियाँ हिंदी.की ही प्रभावी क्यों ठहरती हैं?.
शायद दबंग बनने के लिए बहुत जरुरी है कि राह चलते छिछोरों को भेंण…..बोला जाये.तभी पता चलेगा कि आपमें लड़ने की हिम्मत है…या फिल्म की नायिका  जब तक ये ना बोले ” तुम वहां होते तो…… फट के हाथ में आ जाती.” तब तक उसका एक कर्मठ  और तेज तर्रार महिला पत्रकार होना सिद्ध कैसे होता ..
“यू आर रियल बिच सम टाइम” …जबाब ..”सम टाइम ? एवेरी टाइम “.ठीक बात है. बिना बिचनेस के भला पत्रकारिता क्या होगी ?और होगी भी तो इतनी प्रभावी थोड़े ना हो सकती है कि अदालत का फैसला बदल कर रख दे..
अबे यार सुट्टा दे एक …साला दिमाग का दही हो गया….सही बात है जब तक मुँह से धुंए के छल्ले नहीं निकलेंगे मगज काम कैसे करेगा ?और करेगा भी तो पता कैसे लगेगा कि मगज को काम पर लगाया जा रहा है ..
वो बहन का……वहां मेकअप लगा कर घूम रहा है हम साले  क्या यहाँ चू……………..हैं गर्मी में कवर कर रहे हैं.वो साला मा ……..वहां सलेब्रटी बना बैठा है कैमरे के सामने..
अबे काट के छाप इसे ..साले  की …… जाएगी..
बाकी  बातें सब अंग्रेजी में. आखिर टाईट लो वेस्ट जींस और हाथ में उधार की सिगरेट को भी तो जस्टिफाय  करना है .एक शब्द हिंदी का अच्छा बोल दो तो सुनाई पड़ेगा “संस्कृत मत झाडा कर यार “साला एक तो वैसे ही  लगी पडी है..परन्तु गालियाँ जितनी ज्यादा परंपरागत हिंदी की उतनी ज्यादा प्रभावशाली ,अंग्रेज़ तो वैसे ही डिप्लोमाटिक  होते हैं सो उनकी गालियाँ भी डिप्लोमेटिक.  ना बोलने में मजा आता है ना सामने वाले को कुछ असर होता है .ना ही आप पत्रकार जैसे खतरनाक पेशे के लायक समझे जाते हो.


अपने पत्रकारिता के बहुत छोटे से कार्यकाल में  अपनी साथियों के मुँह से इसी तरह के जुमले सुनकर अपने कानो पर यकीन नहीं आता था फिर बाद में लगा कि शायद यही जरुरी होता हो एक प्रभावी पत्रकार बनने के लिए और  एक पुरुषो के  वर्चस्व   क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए .और शायद इसलिए हम विख्यात पत्रकार ना बन पाए और आज ब्लॉग घिस रहे हैं