देशकाल, परिवेश जो भी हो. सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य प्रकृति की तरफ आसक्त था. वह जानता था कि प्रकृति सबसे महत्वपूर्ण है अत: प्रकृति को ही पूजता था. उसी के संरक्षण के लिए उसने अपनी आस्था से जुड़े त्यौहार और रिवाज बनाये जिससे कि लोग उनका पालन श्रृद्धा के साथ कर सकें. यही कारण है कि आज भी दुनिया के हर देश में प्रकृति से जुड़े त्यौहार मनाये जाते हैं. उनका स्वरुप और समय भौगोलिक स्थितियों के वजह से बेशक भिन्न हो और समय के अनुसार उनमें कुछ बदलाव आ गए हों. परन्तु उद्देश्य सभी का वही रहा – प्रकृति प्रेम और संरक्षण. भारत में भी लगभग एक ही समय में, बसंत यानि स्प्रिंग में अलग- अलग जगह बसंत उत्सव या हार्वेस्ट फैस्टिवल मनाये जाते हैं. कहीं मकर संक्रांति, कहीं पोंगल, कहीं लोढ़ी, कहीं होली.
इसी तरह आज “फुलदेई” है.
उत्तराखंड का हार्वेस्ट फैस्टिवल। फूल का अर्थ सब जानते ही हैं, देई का अर्थ है देहरी.
इस दिन लड़कियाँ खासकर छोटी छोटी बच्चियाँ आसपास के जंगल में घूमकर पीले फूल इकठ्ठा करती हैं जो, इस मौसम में, इन इलाकों में बहुतायत में पाए जाते हैं. फिर घर – घर जाकर उनकी देहरी पर इन्हें रखती हैं और यह गीत गाती हैं. जो घर में खुशहाली और सम्प्पन्न्ता के लिए शुभकामनाओं का प्रतीक है.
।।फूलदेई, छम्मा देई, छम्मा देई,
देणि द्वार, भर-भकार,
तैं देलि स बारंबार नमस्कार।।
इसके बदले में घरवाले इन्हें पैसे या गुड़ चावल देते हैं. इन्हीं गुड़ चावल से भेटोला (गुड़ चावल से बना हुआ एक पारंपारीक स्थानीय व्यंजन) बनता है जिसे बेटियों को देने का रिवाज है. यह त्यौहार उत्तराखंड की उस संपन्न संस्कृति का परिचायक है जो मानव व प्रकृति के पारस्परिक संबंधों को दर्शाता है।
अब चूंकि लोक को इन कार्यों से जोड़ने के लिए और देवी देवताओं से जोड़ने की परम्परा है अत: इसके पीछे भी एक कहानी है –
ऐसी मान्यता है कि जब माता पार्वती की ससुराल के लिए विदाई हो रही थी तो वे टिल चावल से देहरी भेंट रहीं थीं. तब उनकी सहेलियों ने रुआंसे मुख से कहा पार्वती तुम तो यहां से विदा हो रही हो अब हम तुम्हें किस तरह याद करेंगे तुम हमें अपनी कुछ निशानी यहां छोड़ दो ऐसा कहते हुए सहेलियां सुबकने लगीं.
तब माता पार्वती प्रसन्न मुद्रा में, खिलखिलाते हुए तिल-चावलों से देहरी पर बिखेरने लगीं. उनकी खिलखिलाहट से वे तिल-चावल पीले-पीले फूलों में परिवर्तित हो गये और उनका नाम “प्यूली के फूल” रखा गया। माता ने सहेलियों से कहा प्रिय सखियों जब भी तुम इन पीले-पीले फूल देहरी पर विखेरोगे इन फूलों में तुम्हें मेरा प्रतिबिंब दिखाई देगा। तभी से चैत्र मास, 1 गते को “फुलदेई” का त्यौहार मनाया जाता है क्योंकि उसी दिन माता पार्वती की ससुराल के लिए विदाई हुई थी ऐसी मान्यता बताई जाती है कि ये केवल देहरी की पूजा नहीं बल्कि माता पार्वती की पूजा है.
असल में फूल देई उत्तराखंड का एक महत्वपूर्ण हार्वेस्ट उत्सव है। यह पावन पर्व अच्छी फसल वाले वर्ष के लिए देवताओं को श्रद्धा अर्पित करने के लिए मनाया जाता है।
प्रत्येक घर के निवासी उन्हें इस विश्वास के साथ धन देते हैं कि बदले में उन्हें समृद्धि और सौभाग्य प्राप्त होगा।
हम बचपन में पिथौरागढ़ में रहते थे तो पहाड़ की सखियों के संग हम भी फूल चुनकर, फ्रॉक की झोली में भरकर निकल जाते थे और हर द्वार पर जाकर यह गीत गाते थे –
।।फूलदेई, छम्मा देई, छम्मा देई।।
और फूल उनकी चौखट पर रखते थे. उसके बदले जो भी मिलता उसे मगन होकर स्वीकार करते और फिर मिल बाँट कर खाते. इस तरह यह त्यौहार आपसी सद्भावना का भी प्रतीक होता.
‘फूल देई’ की आप सभी को शुभकामनाएं. आपका घर परिवार खुशहाली और सम्पन्नता से भरा पूरा रहे.
ये हमारे उत्तराखण्ड में बहुत अच्छे से मनाया जाता है,, फुलों की ताजगी जैसा अहसास होता है इसमें,,,बहुत अच्छा लगा ,,