वह होने को तो एक ड्यूप्लेक्स घर था तीन कमरों वाला पर उसे दो घरों के तौर पर किराये पर दिया गया था। लन्दन के इस तरह के देसी बहुल इलाकों में मकान मालिकों ने इसी तरह कर रखा है। 30-35 साल से यहाँ रह रहे हैं, कमा – बचा कर खूब सारे घर खरीद लिए और फिर उनके 2 या 4 हिस्से कर, कुछ इधर उधर घटा जोड़ कर अलग अलग किराए पर दे देते हैं।  जिन्दगी में फिर और कुछ करने की जरुरत नहीं।  आराम से घर में बैठकर चैन की बंसी बजाओ।  ऊपरी दो कमरों का सेट हमारा था और उसी घर के निचले हिस्से में ही एक कमरे के सेट में वे किराय पर रहते थे।  मूलतः पाकिस्तानी थे।  पिछले साल ही शादी हुई थी और एक महीने की प्यारी सी बच्ची थी।  वह खुद भी किसी कमसिन बच्ची से अधिक नहीं लगती थी।  20-21 साल की उम्र, रूहअफजा की चंद बूँद मिले दूध सी रंगत और खनकती हुई मासूम सी हंसी के पीछे एक बेहद खूबसूरत दिल और तेज दिमाग था।  खूब मिलनसार थी।  हमारे आने के दूसरे ही दिन, हाथ में एक ढकी हुई प्लेट लिए, हमारा दरवाजा खटखटा कर उसने पूछा था “आप लोग गोश्त खाते हो?” और फिर बड़े प्यार से खुद का बनाया “कीमा पिज्जा” मुझे पकड़ा दिया था।  उर्दू में उम्दा शेर लिखा करती थी पर उन्हें किसी से साया करने की इज़ाज़त उसे नहीं थी।  कभी कभार उसके अब्बू अपनी महफ़िलों में उसके वे शेर सुना दिया करते और उसे आ कर बताते कि खूब दाद मिली है और वो खूब उत्साहित होकर मुझे बताती।

उसका पति उससे करीब 7-8 साल बड़ा था और उसके मुताबिक उनके तबके में यह खासा बाजिब उम्र गैप माना जाता था वर्ना उसकी बहनों या कजिन्स के मिआं तो कम से कम 10-12 साल बड़े थे।  उसे तो उसके हिसाब से हमउम्र मिला था।  अच्छा गबरू जवान,  सारे शौक थे उसे। नियमित जिम जाता था।  महंगे ब्रांडेड कपड़े, परफ्यूम खरीदता।  रात को कुछ घंटे काम करता और दिन में कुछ घंटे सोकर, खूब बन- ठन कर दोस्तों के साथ घूमने फिरने निकल जाता।  ऐसा नहीं था कि वह कभी बाहर नहीं निकलती थी हाँ उसे घर से वेवजह निकलने की इज़ाज़त नहीं थी।  उसके पति का खाना बिना चिकन के नहीं होता था तो उसका सामान लेने वह सिर पर हिज़ाब, बदन पर एक मोटा ओवर कोट और बड़ी सी एक चादर लेकर बाहर निकलती थी।  परन्तु यदि उसका कभी बाहर जाकर कुछ खाने का मन करे तो मर्यादा का उलंघन होता था।  माहौल जो खराब था।  हाई स्ट्रीट की एक दुकान का चिकन बर्गर उसे बहुत अच्छा लगता था।  कई बार मुझसे कह चुकी थी कि कभी उस तरफ जाऊं तो जरूर एक बार खाऊँ।  मैंने पूछा एक दिन, तुम्हारा मन करता है तो कैसे खाती हो?

“कभी जब इनका मन और इनके पास समय होता है तो ला देते हैं”।

उसने मुस्कुरा कर जबाब दिया था। अपनी या बच्ची की किसी परेशानी में डॉक्टर के यहाँ अकेले उसे ही जाना होता परन्तु अपने मायके जाने के लिए उसका अकेले घर से निकालना ठीक नहीं था।  उसे बहुत शौक था खूबसूरत वेस्टर्न ड्रेस पहनने का।  साड़ी में बेहद खूबसूरत लगा करती थी।  उसकी शादी में किसी ने एक साड़ी तोहफे में उसे दी थी।  सितारों जड़ी, जोर्जेट की गहरे गुलाबी रंग की साड़ी, उसे बेहद पसंद थी।  वह उसे अपने भाई की शादी में पहनना चाहती थी।  खुद ही किसी तरह अपनी अम्मी से पूछ पूछ कर उसने उसका ब्लाउज भी सिल लिया था।  बहुत उत्साहित थी वो।  शादी के बाद पहला उत्सव था उसके मायके में।  मैंने उससे कहा था कि जब तैयार हो जाओ तो मुझे बुला लेना, तुम्हारा जूड़ा मैं बना दूंगी।  वह और भी खुश हो गई थी।  उसदिन जब मैं उसका जूड़ा बनाने गई तो देखा वह लाल रंग का सलवार कमीज पहने हुई थी।  मैंने पूछा,

“अरे! साड़ी नहीं पहनी ?”

वह अपना रूंआसा चेहरा छुपाते हुए बोली,

“नहीं, उसका ब्लाउज ठीक नहीं आ रहा।“

मैंने उसके चेहरे पर असली वजह पढ़ ली थी और चुपचाप उसके बालों का एक ऊंचा सा जूड़ा बना दिया था।  उसे सिर्फ रात को पति के सामने ही यह सब पहनकर अपने शौक पूरे करने की इजाजत थी।  आखिर और किसे दिखाना था खूबसूरत लग कर ? वह बड़ी अदा से कहती थी कि,

“वो कहते हैं बहुत सेक्सी लगती हूँ मैं साड़ी में इसलिए कहीं बाहर नहीं पहनने देते, कहते हैं किसी मर्द की नजर का क्या भरोसा। क्यों पहनने ऐसे कपड़े कि किसी की नीयत खराब हो देख कर” ।

मैं उससे इन मामलों में बहस नहीं किया करती थी।  जानती थी उसकी और मेरी परवरिश में बहुत फरक था।  जो मेरे लिए सामान्य था उसके लिए बहुत अधिक या शायद असंभव।

मैंने एक दिन उससे कहा कि हाई स्ट्रीट पर बच्चों की फ्री तस्वीर खींच कर पोट्रेट बना कर दे रहे हैं।  चलोगी? सुनकर उसकी आँखें चमकने लगीं फिर थोड़ी देर सोच कर बोली

“ऐसा करते हैं, कल का डॉक्टर से एक अपोइंमेंट ले लेती हूँ बच्ची का। उसी बहाने चलेंगे तो हसबैंड कुछ नहीं कहेंगे”।

उसके घर में दिन के समय भी मोटे परदे लगे होते। रसोई में हांडी पकाते हुए भी शीशे की डबल ग्लेज़ खिड़कियाँ बंद होतीं और उनपर परदे डाले होते। वह पसीने से नहा रही होती। उसके बालों में, कपड़ों में, मसालों की महक बस जाती पर उसे खिड़की खोलने की इजाज़त नहीं थी। कई बार वह तंग आकर पर्दा हटा कर ज़रा सी खिड़की खोल देती और इत्तफाकन अगर उसका पति देख लेता तो जाने क्या क्या सुनती। छोटी सी बच्ची को मसालों की गंध से तकलीफ न हो, उसका दम न घुटे, इसके लिए उसे एक कमरे में सुला कर उसका दरवाजा बंद कर रसोई में खाना बनाती परंतु बंद दरवाजे से उसके रोने की आवाज भी सुनाई नहीं देगी इसलिए वह कभी कभार मुझे कह देती कि मैं थोड़ी देर उस बच्ची के पास बैठ जाऊं जब तक वह हांडी चढ़ाये।

उसे यह सब करना पसंद नहीं था, सेहत पर होने वाले असर को भी वह जानती थी, वह भी बाहर की ताज़ी हवा में अपने मनपसंद कपड़े पहन कर निकलना तो चाहती थी परंतु नहीं करती थी वह कुछ भी, मर्यादा का सवाल था आखिर।

मैंने एक दिन हिम्मत करके उससे कह ही दिया।

“कैसे रहती हो इस कबूतर खाने में सारे दिन बंद, परदे तक नहीं हटातीं, दम नहीं घुटता तुम्हारा ? क्या हो जायेगा जो कोई देख भी लेगा खिड़की से एक नजर तो ? क्या बाहर निकलोगी तो तुम्हें ही कोई खाने बैठा है ?”

वह बड़े अंदाज से कहती –

“नहीं यार, इन (अंग्रेजों) का क्या है। इन का तो कोई ईमान धर्म होता नहीं। हमें तो अपना ख्याल, अपनी तहज़ीब रखनी है न। फिर मेरे हस्बैंड को भी नहीं पसंद यह सब”।

कहते कहते एक मायूस सी मुस्कराहट उसके लबों पर आ जाती और मैं उसकी मर्यादा का मान रखते हुए कहती

“अच्छा चल, अपनी नई ग़ज़ल सुना।“

और वह बच्चों सी किलकती तैयार हो जाती,

“अच्छा रुक प्याज काट के आई , फिर सुनाती हूँ, कल ही लिखी है”।

 

धीरे धीरे अब वह मुझसे खुलने लगी थी। उसकी शायरी में कई बार उसकी मायूसी और उसके सपने झलक जाते जिन्हें वह कह कर टाल देती कि यह तो कविता है, काल्पनिक है, इसका जिंदगी से क्या वास्ता। जिंदगी तो यही है जो हम जी रहे हैं। हाँ आने वाला समय शायद ऐसा न हो। अब भी काफी समय बदल गया है। पर हम अपना चरित्र, अपनी मर्यादा कैसे छोड़ दें। अब मैं गाहे बगाहे उससे बहस कर लिया करती। मर्यादा, चरित्र क्या हैं? हमारे अपने बनाए हुए हैं सब, हम सबकी परिभाषाएँ अपनी अलग अलग।

सामने वाला बदलेगा या उसकी फितरत बदलेगी इस इंतज़ार में हम हमेशा डिफेंसिव मोड में नहीं रह सकते। अपने हक़ के लिए कभी न कभी उस मोड से बाहर आना ही पड़ेगा। उनकी फितरत तब बदलेगी जब हम उन्हें बदलने के लिए कहेंगे और अपने हक़ की मांग करेंगे। वरना तो वह फितरत पीढ़ी दर पीढी ट्रांसफर होती रहेगी और हम यूँ ही अपनी मर्यादाओं का ठीकरा लेकर उनके लिए, उनके हिसाब से जीते रहेंगे।

वह चुपचाप सुनती, फिर कहती, नहीं यार! हमारे बच्चे ऐसे थोड़े न रहेंगे जैसे हम रहते हैं।  हम तो यहाँ होकर भी, पढ़ाई तक पूरी न कर सके। बस प्राइमरी तक पढ़ने दिया उसके बाद हमारे अब्बू हमें लेकर यहाँ से वहाँ घूमते रहते जिससे कि हमें स्कूल में न भेजना पड़े। क्योंकि यहाँ के स्कूलों में लड़के लड़कियां साथ पढ़ते हैं। फिर पहला रिश्ता आते ही शादी कर दी। यूँ हमारी हाँ या न से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था पर फिर भी मैंने अपने मन में यह सोच कर हाँ बोल दी कि पति के घर कुछ तो अपनी मर्जी से जी सकुंगी। पिता और पति में एक पीढ़ी का फासला तो होगा। अब हमें तो अपनी बच्ची को यहाँ रहते हुए स्कूल में भेजना ही पड़ेगा। यह कहते हुए उसकी आँखें चमक जातीं और वह सामने पड़ा हुआ बिस्कुट का डिब्बा मेरी ओर सरका देती और एक बिस्कुट खुद लेकर चाय में डुबा डुबा कर जैसे अपनी इच्छाओं को भी उस गर्म चाय के प्याले में डुबा डालने की कोशिश करती।

समय बीत गया, हमारा प्रोजेक्ट वहां से ख़त्म हुआ तो हम दुसरे इलाके में, एक दूसरे घर में आ गए।  पर उससे फ़ोन, चिट्ठी के माध्यम से संपर्क बना रहा वह अपनी सारी ख़बरें किसी न किसी तरह मुझ तक पहुंचाती रहती।  कभी कभी हम मिल भी लिया करते।  उसके एक बच्ची के बाद दो लड़के और एक लड़की और हो गए। उसने एक महिला इंस्ट्रेक्टर से ड्राइविंग सीख कर लाइसेंस भी ले लिया, एक पुरानी कार उसे दे दी गई क्योंकि बच्चों को स्कूल से लाने, ले जाने या और जरूरी कामों के लिए जरूरी थी। अब वह उस बहाने कभी -कभी ताज़ा हवा खाने बाहर जाती थी। वे एक कमरे से निकलकर तीन कमरों के घर में आ गए।  बच्चे बड़े हो गए हैं तो उन्हें ज्यादा जगह चाहिए अपना अलग कमरा चाहिए इसलिए यहाँ की सरकार ने उन्हें बड़ा घर दे दिया है। घर के परदे अभी भी बंद होते हैं। हसबैंड का घूमना फिरना अब बढ़ गया है इसलिए अब वह अधिक नजर नहीं रख पाता तो कभी कभी अपनी बहन या सहेली के साथ अब वह अपने कुछ पल गुजार लेती है। वह अब थोड़ी मोटी भी हो गई और चेहरा भी कुछ निस्तेज हो गया है। उसे लगता है कि अब कौन उसे देखेगा इसलिए नए घर की रसोई में उसने पर्दा नहीं लगाया है। वहाँ से दूर एक हरा जंगल दिखता है काम करते हुए निहार लेती है। अच्छा लगता है उसे। बड़ा बेटा 18 साल का हो गया है। उसकी एक गर्ल फ्रेंड है जिसके साथ वह दिन भर घूमता है। एक दिन वह दनदनाता हुआ घर आकर चिल्लाया। आज उसने नए घर की रसोई में खुद कीलें ठोक कर मोटा सा पर्दा लगा दिया है। उसे पसंद नहीं कि उसकी माँ बाहर से दिखाई दे। आखिर मर्यादा का सवाल है। मर्दों का क्या वो तो ताड़ते रहेंगे, यही है फितरत उनकी। अपनी सुरक्षा अपने हाथ है।

उस परदे के पीछे रोटी बेलते हुए वह कुछ सोचने लगी।

अचानक उस परदे पर अपनी परछाई में उसे, 18 साल की उस मासूम सी लड़की का चेहरा नजर आने लगा जिसकी फोटो कल उसने अपने बेटे के मोबाइल के कवर पर देखी थी और उसने एक झटके से वह पर्दा हटा दिया।

शिखा वार्ष्णेय