“महिला लेखन की चुनौतियाँ और संभावना”
महिला लेखन की चुनौतियां – कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ खत्म
होंगी कहना बेहद मुश्किल है. एक स्त्री जब लिखना शुरू करती है तब उसकी सबसे पहली
लड़ाई अपने घर से शुरू होती है. उसके
अपने परिवार के लोग उसकी सबसे पहली बाधा बनते हैं. और उसकी घरेलू जिम्मेदारियां और
कंडीशनिंग उसकी कमजोरी।
क्या बेकार का काम करती रहती हो, क्या मिलता है / क्या मिलेगा इससे, समय खराब करती हो, आदि तानो
से गुजर कर एक स्त्री लिखने बैठती है तो अपना सब कुछ अपने लेखन में झोंक देना
चाहती है. तमाम भावनाओं और संघर्षों से भरा हुआ उसका लेखन ज़रा बाहर निकलता है तो
सामना करता है “फूल पत्ती” लेखन का. उसपर अगम्भीर लेखन के ठप्पा लगाए
जाने की साजिशें शुरू हो जाती हैं. आखिर औरत है, क्या लिखेंगी, कविता, उसमें भी
वही फूल पत्ती,
प्रकृति या ज्यादा से ज्यादा
प्रेम -विरह। यहाँ तक कि उनके हर लिखे हुए को उनके परिवार या व्यक्तिगत जीवन से
जोड़ देना भी आम बात है.
द गार्डियन में
लेखिका जोआना वाल्श कहती हैं कि यह सच्चाई सार्वभौमिक है और VIDA (समकालीन साहित्यिक संस्कृति में समकालीन
महिलाओं के लेखन और लैंगिक
समानता के मुद्दों पर एक अनुसंधान
संचालित संगठन) ने भी इसकी पुष्टि की है कि यद्यपि
महिलायें पुरुषों से अधिक पढ़ती हैं और महिलाओं के
लेखन को छापा भी जाता है फिर भी उन्हें बहुत आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है.
साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके लेखन की समीक्षा हो या वे एक समीक्षक के रूप में या फिर एक
अनुवादक के रूप में हों, उनकी उपस्थिति बहुत कम है.
सवाल यह भी नहीं कि महिला लेखकों
को कम छापा जाता है. सवाल यह है कि उन्हें किस तरह छापा जाता है. क्या वाकई पुरुष ऐसा अधिक लिखते हैं जिसे
साहित्यिक क्षेत्र में
महत्त्वपूर्ण माना जाता है ? या यह सिर्फ एक धारणा है.
इन सब साजिशों से गुजरते हुए वह अपना लेखन जारी रखती
है. तब उसके आड़े आता है उसका औरत होना। उसकी तमाम प्रतिभा, अनुभव, और लेखन
को “अरे महिला है न इसलिए” की परिधि में धकेल दिया जाता है. उस पर यदि
वह थोड़ा बहुत देखने में ठीक है तो फिर उसकी सारी प्रतिभा और स्किल उसकी सुंदरता में विलीन कर दिए जाते हैं.
उसकी हर सफलता का कारण उसका औरत होना और उसपर खूबसूरत होना करार दिया जाने लगता
है.
इस सारी बाधा दौड़ में कुछ खुशकिस्मत महिलायें ही
होती हैं जो पूरे ज़ज़्बे और निश्चय के साथ बढ़ती रहती हैं और तमाम चुनौतियों के बावजूद जब वह लिखती हैं तो वह लेखन
उनके अनुभवों से पका हुआ और भावप्रणव होता है.
उस लेखन में उनके अपनी नहीं आस पास के परिवेश और समाज की समस्यायों और तकलीफों का
संवेदनशील वर्णन होता है. वह आग होती
है जिसमें वह स्वयं तप कर निकली है. एक गहरा अवलोकन होता है जो प्रभावशाली होता
है. महिला लेखन में मौलिकता की सबसे अधिक संभावनाएं नजर आती हैं. इतनी मुश्किलों
के बाद जब एक महिला लिखती है तो बिंदास, दिल
खोलकर, निस्वार्थ लिखती है. उसकी अभिव्यक्ति
पर फिर कोई पहरा नहीं काम करता, उसे किसी
की तालियों एवं तानो की परवाह फिर नहीं होती। वह लिखती है, और बस लिखती है. अभिव्यक्त करती है खुद को.
वह वही लिखती है जो उसने अनुभव
किया होता है. जो उसने अपने आसपास होते देखा है. यह भी सच है कि घर गृहस्थी की परिधि में बंधी स्त्री वहीं की
समस्यायों को ही लिखेगी। परन्तु यदि उसे अपने लेखन को पहचान दिलानी है तो उसे अपना
दायरा बढ़ाना होगा। घर, सास, पति, बच्चों
की समस्याओं से परे वृहद रूप
में साहित्य रचना होगा तभी वह लेखन की दुनिया में अपना कोई
मकाम बना पायेगी। वह अपनी ही बनाईं हुईं परिधि में कैद हैं, अपने आप
को समाज की नजर से देखती है और सीमाओं में बंध जाती हैं. लेखन उनकी पहली प्राथमिकता नहीं बन पाता। घर, रिश्ते, परिवार
से जब समय मिलता है तब वह उसके लेखन को
मिल जाता है.
उन्हें इस महिलावादी खोल से खुद ही निकलना होगा। पहले उन्हें कायदे से
लिखना होगा तभी वह कोई मांग रख सकती
हैं. स्त्री घर में बैठकर सोशल मीडिया में चयनात्मक नारीवादी विषयों पर लिखकर खुश है और वहीँ पुरुष लेखक, साहित्य लिखकर पुरस्कार जीतते हैं. लेखिकाओं को अपने ही
कवच से निकलना होगा। एक्स्प्लोर करना होगा, लेखन को
शौकिया गतिविधि और स्वांत सुखाय से हटा
कर एक कैरियर की तरह लेना होगा।
उसके सामने चुनौती है शोध की.
अधिकांशत: शोध इंटरनेट तक सीमित है.कितनी लेखिकाएं हैं जो जमीनी तौर पर शोध करके
लिखती हैं? कितनी लेखिकाएं हैं जो लिखने के लिए
कुछ अधिक प्रयास करती हैं, कुछ
एक्स्ट्रा माइल जाती हैं, अपने कम्फर्ट जोन से निकलती हैं, भ्रमण करती हैं, अकेले
दुनिया देखने,
समझने निकलती हैं? कितनी महिलायें हैं जो अर्थशास्त्र, विज्ञान जैसे विषयों का चयन लेखन के लिए करती हैं. और फिर वे
वह लिखती है जो पाठक पढ़ना चाहता है. जिसका सामाजिक और साहित्यिक महत्त्व है.
हालात बदल रहे हैं. बहुत सी
लेखिकाओं ने यह दायरा तोड़ा है और जम कर हर विषय पर लिख रही हैं. पर अभी बहुत कुछ
बदलना बाकी है. यह दौर बदलाव का है. जैसे – जैसे समाज में महिलाओं की स्थिति
बदलेगी वैसे वैसे महिलाओं के लेखन की सम्भावनाएं भी बनेंगीं। समाज में अभी महिलायें समान हक़ के लिए, समान सम्मान के लिए संघर्ष कर रही हैं.अपने पैरों पर खड़ी हो
रही हैं. सोशल मीडिया ने महिलाओं के लिए लेखन
के अवसरों के द्वार खोले हैं. सोशल
मीडिया के आने से वे महिलायें भी लिख रही हैं जो लेखिका नहीं है । कोई मल्टीनेशनल
में काम करती है,
कोई गायिका है, कोई हाउस वाइफ है तो कोई
कुछ और पर उनके पास कहने को बहुत
कुछ है। वे कहना चाहती हैं इसलिए लिखती हैं. उनके पास ताजगी है, शिक्षा है, संसाधन
है और कुछ करने की, आगे बढ़ने
की सोच है. इससे महिला लेखन की संभावनाएं बढ़ती हैं। बहुत सा ऐसा लेखन
सामने आता है जो अब तक नहीं आया। एक मौलिकता, एक तरह
का ताजापन और विद्वता की संभावनाएं दिखाई पड़ती हैं।
एक महिला लेखिका का भविष्य खुद उसके अपने हाथों में निहित है.
महिला लेखन की चुनौतियां – कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ खत्म
होंगी कहना बेहद मुश्किल है. एक स्त्री जब लिखना शुरू करती है तब उसकी सबसे पहली
लड़ाई अपने घर से शुरू होती है. उसके
अपने परिवार के लोग उसकी सबसे पहली बाधा बनते हैं. और उसकी घरेलू जिम्मेदारियां और
कंडीशनिंग उसकी कमजोरी।
क्या बेकार का काम करती रहती हो, क्या मिलता है / क्या मिलेगा इससे, समय खराब करती हो, आदि तानो
से गुजर कर एक स्त्री लिखने बैठती है तो अपना सब कुछ अपने लेखन में झोंक देना
चाहती है. तमाम भावनाओं और संघर्षों से भरा हुआ उसका लेखन ज़रा बाहर निकलता है तो
सामना करता है “फूल पत्ती” लेखन का. उसपर अगम्भीर लेखन के ठप्पा लगाए
जाने की साजिशें शुरू हो जाती हैं. आखिर औरत है, क्या लिखेंगी, कविता, उसमें भी
वही फूल पत्ती,
प्रकृति या ज्यादा से ज्यादा
प्रेम -विरह। यहाँ तक कि उनके हर लिखे हुए को उनके परिवार या व्यक्तिगत जीवन से
जोड़ देना भी आम बात है.
द गार्डियन में
लेखिका जोआना वाल्श कहती हैं कि यह सच्चाई सार्वभौमिक है और VIDA (समकालीन साहित्यिक संस्कृति में समकालीन
महिलाओं के लेखन और लैंगिक
समानता के मुद्दों पर एक अनुसंधान
संचालित संगठन) ने भी इसकी पुष्टि की है कि यद्यपि
महिलायें पुरुषों से अधिक पढ़ती हैं और महिलाओं के
लेखन को छापा भी जाता है फिर भी उन्हें बहुत आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है.
साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके लेखन की समीक्षा हो या वे एक समीक्षक के रूप में या फिर एक
अनुवादक के रूप में हों, उनकी उपस्थिति बहुत कम है.
सवाल यह भी नहीं कि महिला लेखकों
को कम छापा जाता है. सवाल यह है कि उन्हें किस तरह छापा जाता है. क्या वाकई पुरुष ऐसा अधिक लिखते हैं जिसे
साहित्यिक क्षेत्र में
महत्त्वपूर्ण माना जाता है ? या यह सिर्फ एक धारणा है.
इन सब साजिशों से गुजरते हुए वह अपना लेखन जारी रखती
है. तब उसके आड़े आता है उसका औरत होना। उसकी तमाम प्रतिभा, अनुभव, और लेखन
को “अरे महिला है न इसलिए” की परिधि में धकेल दिया जाता है. उस पर यदि
वह थोड़ा बहुत देखने में ठीक है तो फिर उसकी सारी प्रतिभा और स्किल उसकी सुंदरता में विलीन कर दिए जाते हैं.
उसकी हर सफलता का कारण उसका औरत होना और उसपर खूबसूरत होना करार दिया जाने लगता
है.
इस सारी बाधा दौड़ में कुछ खुशकिस्मत महिलायें ही
होती हैं जो पूरे ज़ज़्बे और निश्चय के साथ बढ़ती रहती हैं और तमाम चुनौतियों के बावजूद जब वह लिखती हैं तो वह लेखन
उनके अनुभवों से पका हुआ और भावप्रणव होता है.
उस लेखन में उनके अपनी नहीं आस पास के परिवेश और समाज की समस्यायों और तकलीफों का
संवेदनशील वर्णन होता है. वह आग होती
है जिसमें वह स्वयं तप कर निकली है. एक गहरा अवलोकन होता है जो प्रभावशाली होता
है. महिला लेखन में मौलिकता की सबसे अधिक संभावनाएं नजर आती हैं. इतनी मुश्किलों
के बाद जब एक महिला लिखती है तो बिंदास, दिल
खोलकर, निस्वार्थ लिखती है. उसकी अभिव्यक्ति
पर फिर कोई पहरा नहीं काम करता, उसे किसी
की तालियों एवं तानो की परवाह फिर नहीं होती। वह लिखती है, और बस लिखती है. अभिव्यक्त करती है खुद को.
वह वही लिखती है जो उसने अनुभव
किया होता है. जो उसने अपने आसपास होते देखा है. यह भी सच है कि घर गृहस्थी की परिधि में बंधी स्त्री वहीं की
समस्यायों को ही लिखेगी। परन्तु यदि उसे अपने लेखन को पहचान दिलानी है तो उसे अपना
दायरा बढ़ाना होगा। घर, सास, पति, बच्चों
की समस्याओं से परे वृहद रूप
में साहित्य रचना होगा तभी वह लेखन की दुनिया में अपना कोई
मकाम बना पायेगी। वह अपनी ही बनाईं हुईं परिधि में कैद हैं, अपने आप
को समाज की नजर से देखती है और सीमाओं में बंध जाती हैं. लेखन उनकी पहली प्राथमिकता नहीं बन पाता। घर, रिश्ते, परिवार
से जब समय मिलता है तब वह उसके लेखन को
मिल जाता है.
उन्हें इस महिलावादी खोल से खुद ही निकलना होगा। पहले उन्हें कायदे से
लिखना होगा तभी वह कोई मांग रख सकती
हैं. स्त्री घर में बैठकर सोशल मीडिया में चयनात्मक नारीवादी विषयों पर लिखकर खुश है और वहीँ पुरुष लेखक, साहित्य लिखकर पुरस्कार जीतते हैं. लेखिकाओं को अपने ही
कवच से निकलना होगा। एक्स्प्लोर करना होगा, लेखन को
शौकिया गतिविधि और स्वांत सुखाय से हटा
कर एक कैरियर की तरह लेना होगा।
उसके सामने चुनौती है शोध की.
अधिकांशत: शोध इंटरनेट तक सीमित है.कितनी लेखिकाएं हैं जो जमीनी तौर पर शोध करके
लिखती हैं? कितनी लेखिकाएं हैं जो लिखने के लिए
कुछ अधिक प्रयास करती हैं, कुछ
एक्स्ट्रा माइल जाती हैं, अपने कम्फर्ट जोन से निकलती हैं, भ्रमण करती हैं, अकेले
दुनिया देखने,
समझने निकलती हैं? कितनी महिलायें हैं जो अर्थशास्त्र, विज्ञान जैसे विषयों का चयन लेखन के लिए करती हैं. और फिर वे
वह लिखती है जो पाठक पढ़ना चाहता है. जिसका सामाजिक और साहित्यिक महत्त्व है.
हालात बदल रहे हैं. बहुत सी
लेखिकाओं ने यह दायरा तोड़ा है और जम कर हर विषय पर लिख रही हैं. पर अभी बहुत कुछ
बदलना बाकी है. यह दौर बदलाव का है. जैसे – जैसे समाज में महिलाओं की स्थिति
बदलेगी वैसे वैसे महिलाओं के लेखन की सम्भावनाएं भी बनेंगीं। समाज में अभी महिलायें समान हक़ के लिए, समान सम्मान के लिए संघर्ष कर रही हैं.अपने पैरों पर खड़ी हो
रही हैं. सोशल मीडिया ने महिलाओं के लिए लेखन
के अवसरों के द्वार खोले हैं. सोशल
मीडिया के आने से वे महिलायें भी लिख रही हैं जो लेखिका नहीं है । कोई मल्टीनेशनल
में काम करती है,
कोई गायिका है, कोई हाउस वाइफ है तो कोई
कुछ और पर उनके पास कहने को बहुत
कुछ है। वे कहना चाहती हैं इसलिए लिखती हैं. उनके पास ताजगी है, शिक्षा है, संसाधन
है और कुछ करने की, आगे बढ़ने
की सोच है. इससे महिला लेखन की संभावनाएं बढ़ती हैं। बहुत सा ऐसा लेखन
सामने आता है जो अब तक नहीं आया। एक मौलिकता, एक तरह
का ताजापन और विद्वता की संभावनाएं दिखाई पड़ती हैं।
एक महिला लेखिका का भविष्य खुद उसके अपने हाथों में निहित है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-02-2017) को
"हँसते हुए पलों को रक्खो सँभाल कर" (चर्चा अंक-2592)
पर भी होगी।
—
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
—
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
शिखा जी, सच में महिलाओं के लेखन में उन्हें बहुत सी बाधाओ को पार करना होता है। सबसे पहले पारिवारिक बाधा। उन्हें घर में ही इसके लिए प्रोत्साहन नहीं मिलता। खैर, बहुत बढ़िया लेख।
मैंने आपका यह पहला लेख पढ़ा। वाकई आप बहुत अच्छा लिखती है। अब बाकी भी पढूंगी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "तीन सवाल – ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति …. Nice article with awesome explanation ….. Thanks for sharing this!! 🙂 🙂
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