लो फिर आ गया वह दिन. अब तो आदत सी बन गई है इस दिन लिखने की. बेशक पूरा साल कुछ न लिखा जाए पर यह दिन कुछ न कुछ लिखा ही ले जाता है. आप का ही असर है सब.

मुझे याद है स्कूल में एक भाषण प्रतियोगिता थी. मैंने पहली बार अपनी टीचर के उकसाने पर भाग ले लिया था. मैं हमेशा से स्टेज पर दो पंक्तियाँ भी बोलने में कांपा करती थी और फिर भाषण तो बहुत बड़ी बात थी. वह तो बोलने से पहले लिखना भी था. मैंने आपसे जिक्र किया तो आपने दूसरे दिन एक  पैरा भूमिका सा लिख कर दे दिया था कि ले, अब इसके आगे लिख ले. मुझे एक आधार मिला और मैंने थोड़ा और लिखकर वह भाषण सुना दिया. उस भाषण में आपका वही पैरा सबसे प्रभावी था और मुझे उसमें दूसरा स्थान मिला.

अब तो मेरे हौसले बुलंद हो गए थे तो मैंने वाद विवाद प्रतियोगिता में अपना नाम लिखवा दिया और घर आकर बड़ी शान से आपको बताया. आप बोले – “तो लिखो”. अब मुझे काटो तो खून नहीं. पर मैं चुप रही यह सोच कर कि अभी कह रहे हैं ऐसे ही, बाद में लिख ही देंगे. पर नहीं हुआ ऐसा. आखिरी दिन तक मैंने आस नहीं छोड़ी थी. मैंने मम्मी से भी रुआंसा मुँह बनाकर सिफारिश लगवाई थी. पर आपने अपनी व्यस्तता का बहाना बना दिया था. कह दिया लिखो खुद, नहीं तो मत लो हिस्सा. मरता क्या न करता – नाम तो वापस लेना असंभव था …लंबी नाक तो आपसे ही पाई थी. आखिरी दिन लिखा किसी तरह मैंने ही …न जाने क्या. .. कैसे … और गज़ब हुआ. थोड़ा कांपते हुए बोलने के बावजूद भी पहला स्थान मिला. घर आकर बताया तो धीरे से मुस्कुराए थे आप. तब लगा था – हुंह, लग रहा होगा, आप नहीं मदद करोगे तो कुछ नहीं होगा. परन्तु उस मुस्कराहट का मतलब आज समझ पाई हूँ. जब आज भी कुछ न कुछ मुझसे लिखवा ही लेते हैं आप. न जाने कैसे …

मुझे अब समझ में आता है कि आज मैं जो भी थोड़ा बहुत, जैसा भी लिख पाती हूँ आपकी उस “न” की ही वजह से. यदि तब आपने वह “न” की होती तो मैं आज कुछ भी नहीं लिख पा रही होती.

कभी कभी “न” में भी कितनी सकारात्मकता होती है न. कितना जरुरी होता है “न ” भी. सोचती हूँ काश कुछ और ” न” कहे होते आपने…

हाँ बस अगले जन्म में भी हमें मिलने के लिए “न” मत कहना… 

हैप्पी बर्थडे पापा…