फिर वही धुँधली राहें,
फिर वही तारीक़ चौराहा.
जहाँ से चले थे
एक मुकाम की तलाश में,
एक मंज़िल के
एक ख्वाब के गुमान में
पर घूम कर सारी गलियाँ
आज़,
फिर हैं मेरे सामने-
 वही गुमनाम राहें ,
वही अनजान चौराहा.
तय कर गये एक लंबा सफ़र,
हल कर गये राह की
सब मुश्किलातों को,
पर आज़ खड़े हैं फिर
उसी मोड़ पर,
हो जेसे पूरा सफ़र नागवारा.
जितनी कोशिश करते हैं समझने की,
उतनी ही अजनबी हो जाती है ये दुनिया,
 मालिक ने तो दिया
बस एक चेहरा आदमी को,
उपर कई चेहरे लगा लेता है ये ज़माना.
प्यार के बदले दुतकार मिलती है,
वफ़ा के बदले इल्ज़ाम मिलता है,
शांति की तमन्ना में तकरार का सबब है,
ओर इसी को ज़िंदगी कहता है ये ज़माना.
क्यों हम ही नही समझ पाए आख़िर,
दुनियादारी-जो हर कोई जनता है,
हम ही क्यों बेबस हो जाते हैं अक्सर,
शायद शराफ़त ही है हमारा कुसूर सारा