कहीं छोटे छोटे बच्चे किसी रोमांटिक गाने पर उत्तेजक मुद्राओ और हाव भाव के साथ डांस करते हुए दीखते हैं …और जज तालियाँ बजाते हुए कहते हैं वाह कमाल के हाव भाव थे…थोडा और काम करो इन पर.
या उस ८ साल के बच्चे को पता होगा कि अवार्ड ज्यूरी किस कैटगरी में उसे अवार्ड दे रही है…? जो उसने उस कैटगरी का अवार्ड ही लेने से इंकार कर दिया ..बच्चे तो बस इनाम पा कर खुश हो जाया करते हैं …..किसी वयस्क ने ही उन्हें ये सब रटाया होगा न..ऐसी मानसिकता बच्चों में भरकर क्या फायदा “तारे जमीं पर ” बनाने का ?आखिर क्यों अपने स्वार्थ के लिए हम इन मासूमो से इनकी मासूमियत छीनते हैं ? क्या हक़ है हमें इनके बचपन को बर्बाद करने का? और क्या होगा इनका भविष्य?
-और 80 -90 के दशक कि सुपर स्टार बेबी गुड्डू का तो कोई अता पता ही नहीं….जिसके बारे में लोग कहते थे कि उसके माता – पिता उसकी बढ़त रोकने के लिए उसे दवाइयां खिलाते थे कि कहीं बड़ी होकर उसकी मासूमियत ख़तम हो गई तो उन्हें विज्ञापन कैसे मिलेंगे.
-वहीँ एक बाल कलाकार ने बताया कि उसकी मम्मी उसे जोर से चिकोटी काटती है जब वो किसी दृश्य के लिए रोने से मना कर देती है.
-एक बच्ची के अनुसार उसे पढने का बहुत शौक है पर वो रात- दिन शूटिंग में व्यस्त होने कि वजह से स्कूल नहीं जा पाती थी. .और इस वजह से १ क्लास में वो २ बार फ़ैल हुई..
-वहीँ एक बाल कलाकार के सारे पैसे उसके माता पिता लेकर उड़ा देते थे और उससे कहते थे कि “तुम अपना पिग्गी बैंक मत खोलना इसी में हैं सब.”..एक दिन जब बच्चे ने देखा तो उसमें सिर्फ कुछ सिक्के थे.
-कहा जाता है बेबी नाज़ (बूट पोलिश ) अपने समय में किसी भी स्टार से ज्यादा पैसे कमाती थी पर उसे अपनी कमाई का एक भी पैसा छूने नहीं दिया जाता था.वो जब घर वापस आती थी उसके माता पिता उसे लड़ते हुए मिलते थे और उसे ठीक से खाना भी नहीं मिलता था.
आखिर क्या गुनाह है इन बच्चों का? यही कि ये देखने में खूबसूरत हैं , प्रतिभावान हैं , या उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका उनकी किस्मत ने दिया है ?.तो क्या इस गलती की सजा के तौर पर उन्हें अपना बचपन जीने का हक़ नहीं? क्या अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का हक़ नहीं ..क्या उन्हें अपने माता पिता की गोद में मस्ती करने का मन नहीं करता..?:)
मेरा कहने का मतलब ये नहीं कि बाल कलाकारों के माता पिता कसाई होते हैं ..या बच्चों की प्रतिभा को अवसर नहीं देना चाहिए..परन्तु ये कार्य उन मासूमो का बचपन बरकरार रख कर भी किया जा सकता है…हम हर बात पर इंग्लेंड या अमेरिका की होड़ करते हैं , फिर इस बात पर क्यों नहीं कर सकते.?
वहां बाल कलाकारों से एक समय अवधि से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता जिससे उनपर किसी भी तरह का मानसिक या शारीरिक दवाब न पड़े.
उनकी पढाई की समुचित व्यवस्था होती है और परीक्षाओं के दौरान शूट पर ही टीचर का प्रबंध होता है.
उनकी कमाई का एक हिस्सा एक ट्रस्ट में उनके नाम जमा करना जरुरी होता है.
वहां जिस तरह बाल मजदूर के लिए कानून है उसी तरह बाल कलाकार के लिए भी है..पर अफ़सोस हमारी सरकार को अभी तक इस तरह के किसी कानून की कोई जरुरत महसूस नहीं हुई…हाँ बाल मजदूरी के लिए कानून अवश्य हैं वो लागू कितने होते हैं वो एक अलग मुद्दा है.
एक सर्वे के अनुसार हमारे देश में बाल कलाकारों का जीवन आम लोगों के अनुपात में छोटा होता है…खेलने – कूदने की उम्र में प्रेस कांफ्रेंस , ग्लेमरस पार्टी और फेशन परेड अटेंड करने वाले ये बच्चे कब अपनी उम्र से बहुत पहले ही व्यस्क होने पर मजबूर हो जाते हैं इन्हें खुद भी अहसास नहीं होता. कैमरे कि तीव्र रौशनी और दिखावटी दुनिया में कब इन नन्हें मासूमो पर एक दिखावटी आवरण चढ़ जाता है. और कब इनका व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है ये शायद वक़्त निकल जाने पर इन्हें या इनके घरवालों को पता चलता हो . परन्तु इस नकली चूहा रेस में इनके बचपन के साथ साथ इनका भविष्य भी वयस्कों की स्वार्थपरता और लालच की भेंट चढ़ जाता है.
*चित्र गूगल से साभार
शिखा जी
मैं तो पोस्ट पढ़ कर अधीर हो गया .
और सोचने लगा लग की इस तरह का सार्थक लेखन यदि हमारा ब्लॉगर समाज नियमित करने लगे तो समाज में फैली विद्रूपताएँ निश्चित रूप से समाप्त हो सकती हैं.
इस पोस्ट के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें.
– विजय
हार्दिक बधाई
u have raised right issue in right way, excellent
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आपने जिस प्रसंग का जिक्र किया है , उसे देखकर हमें भी ग्लानी होती है । पैसे के लिए ये लोग बच्चों का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते । सही कहा , बच्चे भला क्या समझते होंगे उन बातो को जिन्हें वो बोल रहे होते हैं ।
क्या यह बाल श्रम के अंतर्गत नहीं आता ?
bahut hi badhiya post hai..
sahi vishay ka chayan aur sahi samsya par chali hai aapki kalam ..
bahut dino baad ek acchi post padhne ko mili hai..
bahut badhaai..
बाल कलाकारों के बारे में इतने तथ्य खोज लाईं आप.. कुछ सुन तो रखा था पर इनके दर्द के बारे में और जानना दुःख दे गया. सच है आजकल इंसान को पैसों के अलावा कुछ दीखता ही नहीं.. च
पर हंसिका मोटवानी थी या कुछ और नाम था जिसकी शक्ल ऐश्वर्या से मिलती थी और सलमान ने लॉन्च किया था जिसे.. वो भी तो बाल कलाकार थी फिर अभिनेत्री के तौर पर असफल रही. अपवाद में आमिर खान, ऋषि कपूर, शशि कपूर का नाम ले सकते हैं.
दुखती रग पर हाथ रख दिया शिखा, मन के बहुत करीब है यह विषय. रोज ही इन बच्चों के ऐसे अभिनय और ऐसी पोशाकों में नृत्य करते देख..मन में ये ही सारे सवाल उठते हैं , जिनका जिक्र तुमने यहाँ किया है. इनके माता-पिता कौन सी अपनी अतृप्त लालसा पूरी करना चाहते हैं??…बच्चों की सारी मासूमियत छीन लेने के अपराधी हैं ये.
एक बाल कलाकार के बार में सुना जिसने 'कभी अलविदा ना कहना' में अभिनय किया है कि उसकी माँ ने एक लड़के का रोल करवाने के लिए सबसे ये बात छुपा कर रखी कि वो एक लड़की है ,करण जौहर तक को ये नहीं पता था.
'कल्याण जी आनंद जी इंस्टिच्यूट' के बच्चों को खुद मैने देखा है. रात के बारह बजे, भारी पोशाकों में करीब बीस बच्चे एक पतली सी गैलरी में जमीन पर बैठे,अपनी बारी का इंतज़ार कर रहें थे.
बहुत ही बढ़िया आलेख…काश उन बच्चों के माता-पिता की नज़र इस पर पड़े और बच्चों के लिए उनका बचपन कितना जरूरी है, यह सीख ले सकें.
विचारोत्तेजक आलेख
क्या यह भी बाल मजदूरी के समकक्ष नहीं है. क्या यह भी बच्चो के बचपन का दोहन नहीं है?
निश्चित ही इस तरह के कार्यक्रम उन बच्चों के साथ नाइंसाफी है, उन्हें तो वही कार्यक्रम स्कूल के प्लेटफार्म पर करना चाहिये था.
@दीपक,वो हंसिका मोटवानी नहीं…स्नेह उल्लाल थी
वैसे तुम्हारा कहना सही है..हंसिका बाल कलाकार रूप में बहुत चलीं.पर हिमेश रेशमिया के साथ नायिका के रूप में लॉन्च तो हुई पर फिल्म की तरह वे भी सफल नहीं हो पायी.स्नेहा उल्लाल बाल कलाकार नहीं थी.सीधा नायिका के रूप में ही लॉन्च हुई थी
.
इसी पर एक बार मैने भी एक लेख लिखा था ——-क्या ये बालश्रम नही?
कोई फ़र्क नही पडता कितना ही कोशिश कर लो……………जब खून मूँह लग जाता है तब कहीं कोई आचार विचार नही रहता और यही हाल आज के समाज का हो चुका है।
सटीक विषय का चुनाव ….जब बच्चों को दूरदर्शन पर कार्यक्रम के दौरान देखते हैं तो नाचते हुए तो बहुत प्यारे लगते हैं…पर उसके पीछे का सच कितना वीभत्स है इस पर भी सोचना चाहिए…
आज लाइव शो किये जाते हैं ..अभी ज़ी टी वी पर आ रहा है कार्यक्रम लिटिल चैम्प्स…जब वहाँ बच्चों को मन किया जाता है तो कितनी मानसिक यंत्रणा से गुज़रते होंगे….पिछले वर्ष कोलकता में तो एक बच्ची डिप्रेशन का शिकार हो गयी थी ….
आज की पोस्ट तुम्हारी सच ही सराहनीय और विचारणीय है….सार्थक लेखन
बहुत सही प्रश्न उठाया है आपने …इन बच्चो का क्या भविष्य होगा …
अभी कुछ दिन पहले देखा एक टीवी रिअलिटी शो में ….पांच वर्ष की बच्ची हाथ जोड़ कर अपनी माँ के शब्द दुहरा रही थी …" प्लीज़ मुझे सलेक्ट कर लीजिये , आप जो कहेंगे , मैं करुँगी , आपको दस किस्सी भी दूंगी …"
मन ऐसा क्षुब्ध हुआ …कि क्या कहूँ
सही कहा , हम सबको इस पर सोचने की जरुरत है , पर नाम , सोहरत और पैसा आदमी को पागल सदियों से बना रहे है और लग रहा है के सिलसिला ख़त्म होने वाला नहीं है .
http://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
विचारपूर्ण
ठीक कहा है पर क्या करें लोग पैसे को ज्यादा मह्त्व देने लगे हैं ।बस हर तरफ पैसा बोलता है सिर्फ पैसा………
sikha ji namaste
aapke blog par aakar bahut accha laga aur uska anusaran bhi kar rahi hun.
aapne jo baal kalakaron ke baare main likha hain uska ek-ek akshar dil par chot karta hain.un baccho ke mata pita ko yeh baat kyo nahi samajh aati ki hum apne baccho ke bhavishya ke saath kya kar rahe hain.
आजकल कुकुरमुत्ते कि तरह उग आये तथाकथित रियलिटी शो, उसमे हार जीत,, नन्हे बालमन पर क्या प्रभाव छोड़ जाते है ये मनोविज्ञान का विषय है .उन बच्चो के माता पिता , अपना सर ऊँचा रखने के लिए और पैसे के लिए , अपने बच्चो का बचपन दांव पर लगा देते है. सिक्के का दूसरा पहलु ये कि माता पिता के अलावा ऐसे शो के producer बच्चो को दिखाकर दर्शक आकर्षित करते है जोकि उनकी मोटी कमाई के लिए जरुरी है .उनका हारना या जीतना ऐसे हर्ष या विषाद का विषय होता है मातापिता के लिए जैसे उनके बच्चो ने कोई जिंदगी कि बड़ी लड़ाई जीत लिया हो या हार गए हो.
मुझे लगता है कि ऐसे शो में पात्रता हेतु, जनता , बाल विशेषज्ञ , मनोवैज्ञानिक कि राय लेकर एक उम्र कि सीमा रेखा खीचनी चाहिए , जो मेरे हिसाब से व्यस्क होने से पहले कि उम्र नहीं होनी चाहिए .एक और प्रमुख मुद्दा ये कि उनको कैश इनाम ना देकर bond या फिक्स्ड deposit के रूप में दिया जाना चाहिए जो उनके भविष्य में काम आ सके..
शिखा जी इन बच्चो को बचपन जीने का सही अवसर नही मिल पा रहा इस बात से पूरी तरग सहम्र हू लेकिन कल्पना करो कि हमारी आने वाली फ़िल्मो मे बच्चे ना हो तो फ़िल्मे कैसी होगी. ये जरूरी है कि बाल कलाकारो के सहज जीवन और विकास का ध्यान रखा जाये और उनको मिलने वाली आय भी पूरी तरह उनके भविष्य को ध्यान मे रखकर ही उन्हे दी जाये.
वाल श्रम की बात सही है पर हमे याद रखना चाहिये कि सचिन, लता और मीना कुमारी जैसे अपने फ़न के दिग्गज बहुत कम उमर मे इस दुनिया मे अपनी प्रतिभा का जलवा विखेर चुके थे.
अगर प्रतिभा है तो कम उमर मे सामने आना गलत नही है लेकिन उसका उद्देश्य पूरी तरह पवित्र होना चाहिये और कमसेकम ये माता पिता के अधूरे सपनो की कसक के कारण नह्वी होना चाहिये
Diosa,
एक बार फिर बहुत सटीक और सुन्दर लेखन, विषय का चुनाव ही विषय के महत्त्व को रेखांकित कर रहा है, कम से कम हमारी नज़र मैं तो यह बचपन और भविष्य दोनों से अन्याय ही है, सार्थक लेखन के लिए साधुवाद,
हरी जी ! जो आपने कहा वही मैंने भी कहा है ..ये पंक्तियाँ पढ़िए."
मेरा कहने का मतलब ये नहीं कि बाल कलाकारों के माता पिता कसाई होते हैं ..या बच्चों की प्रतिभा को अवसर नहीं देना चाहिए..परन्तु ये कार्य उन मासूमो का बचपन बरकरार रख कर भी किया जा सकता है.
जरुर उन्हें अपना फ़न दिखाने का मौका मिलना चाहिए पर बच्चों कि ही तरह और बिना उनका बचपन बिगाड़े.
मैने यह नहीं कहा कि सब ऐसे ही होते हैं अपवाद हैं …आपने लता ,सचिन मीना कुमारी का नाम लिया ..जिसमें से लता और सचिन ठीक है परन्तु मीना कुमारी ने किस तरह ..कुंठा और दर्द में अपना छोटा सा जीवन जिया ये सब जानते हैं.
स्थिति बहुत ही चिंता जनक बन गयी है , आपके लेख बहुत बढ़िया लगा ।
@हरि जी,
एक इंटरव्यू में हेमा मालिनी ने कहा था कि जब बच्चे खेलते थे ,तब वे नृत्य का अभ्यास करती थीं. और उन्हें आज भी इसका दुख है कि बचपन में वे खुल कर अपने दोस्तों के साथ खेल नहीं पायीं….आज बड़ी नृत्यांगना जरूर बन गयीं,पर जो उन्होंने खोया वो कभी नहीं लौट सकता. इसलिए थोड़ा बैलेंस रखना चाहिए.
शिखा जी किसी की शान मे गुस्ताखी ना हो, लेकिन बहुत दिन से बात दिमाग मै है कि जिन दूध पीते बच्चो के ब्लोग मा बाप बना के चला रहे है उनकी भी सामग्री और विचार बाल्मन और बाल अनुभव से आगे की कहानी कहते दिखते है. यहा तक तो ठीक है कि बच्चा ब्लोग पर लिख नही सकता लेकिन उसके नाम से उतनी ही बात लिखी जाये जितना वो बच्चा बास्तव मे सोच समझ सकता है. अच्छा हो कि भाषा और विचार बच्चे के ही हो तभी उसे बच्चे का ब्लोग कहा जाये.
हरी जी ! मुझे पता नहीं आपका इशारा किस तरफ है. परन्तु यदि ऐसा हो रहा है तो मैं आपसे पूर्णत: सहमत हूँ.
इस मुद्दे पर हमेशा सोचती हूं, और कई बार लिखा भी, कई जगह नामी-गिरामी लेखकों ने भी लिखा, लेकिन क्या हुआ? पैसे के आगे अब किसी को कुछ दिखता नहीं. अपने बच्चों का बचपन भी नहीं.
सच
माताओं पिताओं की कुत्सिस भावनायें भी दोषीं हैं जो बच्चों की आंखों में अपनी लिप्सा डालतें हैं.
अच्छा मुद्दा, अच्छे हवाले और अच्छी समझ के साथ एक बड़ा लेख। सब कुछ सटीक ढ़ंग से पेश किया गया। बधाई हो।
बुरा ना मानें तो एक बात कहना चाहूंगा, हम लोगों की आदत या फिर जिंदगी में कुछ वाहियात शब्द या चुटकुले जुड गए हैं और साथ ही हम उनको हर दिन सुनते हैं और ना चाहते हुए भी सराहाते हैं। यदि गौर करें तो हाल में चल रहे कॉमेडी सर्कस में वाहियात जोक होते थे साथ ही दोगले संवाद कि जिसे सुन कर हर बार अर्चना ठहाके मार मार के हंसती थीं।
आपके टाइटल के साथ खल्लास की जगह खत्म शब्द ज्यादा सटीक और अच्छा लगता। ये मेरा मानना है इसे अन्यथा ना लें।
धन्यवाद।
Very Good…..
आप सही कह रहीं हैं , पिछले दो दशकों में उत्तरोत्तर यह प्रवित्ति खतरनाक ढंग से अग्रगामी हो रही है .अफ़सोस धन और चकाचौंध के चक्कर में हम कैसा समाज रच रहे हैं जो निश्चित रूप से हमारे लिए ही खतरनाक होगा.
क्या इसको बाल श्रम के अंतर्गत नहीं माना जाता है?
वैसे ये सब बड़ा ही चिंतनीय है……….बच्चों के द्वारा जो कठोर श्रम करवाया जा रहा है वो एक बात है साथ ही उनको बचपन में ही जवानी के रंग दिखा दिए जा रहे हैं. उनके चुटकुलों में कहीं न कहीं अश्लीलता वाले, वयस्कों वाले सन्दर्भ देखने को मिलते हैं और मम्मी पापा ठहाके मार कर हँसते दीखते हैं.
यही पीढ़ी आगे चल कर जब फ्री सेक्स की मांग करती है तब हम युवाओं की मानसिकता को कोसते हैं……
आगे के लिए अभी से सोचना होगा.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
शिखा जी , आज आप ने मेरे दिल की बात कह दी, पता नही जमाने को क्या हो गया है, हमारे यहां भी दो चार परिवारो मै यही चलन है, वो अपनी तीन चार साल की बच्चियो से इसी तरह की बाते करवा कर नचा कर,इसे एक गुण, एक टेलंट, एक हुनर का नाम देते है, ओर जब यह मासुम उन आदाओ पर वेसे ही नाचती है तो देखने वालो को शर्म आ जाती है, ओर मां बाप गर्व से सर ऊंचा करते है, इस मै उस बच्ची का तो कोई दोष नही, मेने एक बार एक परिवार को इस बारे टोक दिया कि यह सब अच्छा नही…. परिणाम यहां लिखने की जरुरत नही कि क्या ्हुया होगा, आज की आप की यह सब से अच्छी ओर मेरे मन भावन पोस्ट है,
धन्यवाद
अभी बच्चों के दो नए नृत्य शो शुरू हुए है,उनमे बच्चों द्वारा पसंद किये गए गाने सुन कर ही अफ़सोस होता है!वे गाने के बोल नही समझ पाते होंगे..पर क्या माँ बाप भी नही,जज भी नही,दर्शक भी नही?क्या किसी को ये अशोभनीय या भद्दा नही लगा…दुःख होता है ऐसी मानसिकता पर! आखिर कोई तो इसे रोके?
बहुत अच्छा और जरुरी विषय लिया है आपने. सार्थक लेखन के लिए बधाई.
badi sangidgi se aapne baat rakhi hai..well done!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
कमाल है ऐसी सार्थक और उपयोगी पोस्ट पर भी 'नापसंद का चटका' ?
हैरान हो रही हूँ…क्या सचमुच हिंदी ब्लॉग जगत में ऐसे भी लोग हैं…?
Agree with the 'Anonymous',
"u have raised right issue in right way, excellent"..
Problem is a crave for getting focus.. problem is the glamorization of these kids.. In the same way, we glamorize our blogs here.. anything for name, fame and aim..
Btw a great post.. I am just tinkering on the possible solutions.. Do we have any???
आपने एक बहुत ही संवेदनशील विषय को उठाया है, टी वी पर जब इस तरह के शो देखते हैं तो बहुत गुस्सा आता है, सचमुच कुछ लोग ना जाने क्यों अपने बच्चो का बचपन छीन रहे हैं, आपका बहुत धन्यवाद् इस मुद्दे को उठाने के लिए!
शिखा जी आपके लिखे से मै भी शब्द शब्द सहमत हू. मै टिप्पणिया कम करता हू लेकिन जहा करता हू कोशिश करता हू कि पोस्ट को समझकर कुछ सार्थक योगदान दू. खैर, बढिया आलेल्क के लिये बधाई.
॒ रश्मि जी हेमा मालिनी जी की बात मैने सुनी है लेकिन हर चीज अपनी कीमत मागती है, कम उमर की सफ़लता भी. आपसे असहमत होने का तो मन ही नही करता क्तोकि आप अपनी बात तर्क से कहती है. पर क्या करू ? सोचकर टीप देता हू तो अपने मन की बात कह ही जाता हू.
लेकिन कुछ लोग है जो बच्चों के स्वाभाविक विकास की दिशा मे भी सक्रिय हैं । हमारे शहर मे बालरंग नाम की एक संस्था है जिसमे बच्चे ही नाटक का निर्देशन करते है बच्चे ही नाट्यशिविर आयोजित करते है और बड़े सिर्फ दर्शक होते हैं । इस विषय पर बच्चे भी सोचते है जो आपने उठाया है ।
शिखा जी,
अभी मैं एक दिन अपने बचपन के शहर मेरठ गया था…रास्ते में एक कस्बा आता है मुरादनगर…वहां मैं एक बड़ा सा होर्डिंग देखकर बड़ा हैरान हुआ था…किसी स्कूल का उद्घाटन था और मुख्य अतिथि के तौर पर आनंदी (बालिका बधू फेम) को बुलाया गया था…आनंदी का नाम इतना मोटा लिखा हुआ था जितना कि कांग्रेस के प्रचार पोस्टरों में सोनिया गांधी या राहुल गांधी का लिखा जाता है…अगले दिन अखबार में रिपोर्ट पढ़ी तो आनंदी के हावभाव किसी सुपरस्टार से कम नहीं लगे…पढ़ाई की उम्र में ऐसे लटके-झटके…इतना प्रचार किसी का भी दिमाग खराब कर दे…लेकिन उसके मां-बाप की आंखों पर तो फिलहाल नोटों का ही चश्मा चढ़ा हुआ होगा…जो सीरियल के साथ-साथ बेटी को ऐसे उद्घाटन प्रोग्रामों में भी भेजकर कमाई करने लगे हैं…मान लीजिए आनंदी बड़ी होकर प्रसिद्ध कलाकार नहीं बन पाई तो ये आज का ये सारा हाइप साइकिक तौर पर उस पर कितना बुरा असर डालेगा…
जय हिंद…
अरे खुशदीप जी! यही होर्डिंग मैने भी मेरठ जाते समय देखा इस बार ..और यही भाव मेरे मन में आये थे ..सच पूछिये तो इस पोस्ट का ख़याल भी वहीँ से जन्मा था.
शिखा जी ,ये लेख अगर ऐसे बच्चों के माता -पिता पढ़ लें और उन पर ज़रा सा भी असर हो जाए तो बचपन के प्रति ये आप का एक बड़ा योगदान होगा,उपकार होगा,
लेकिन जिन लोगों की आंख पर स्वार्थ का ,धन का ,ऐशो आराम का परदा पड़ा हो उन्के लिये अपने बच्चों के बचपन की क्या अहमियत ,बहुत ही दुखद और शोचनीय स्थिति है,
छुट्टियां आते ही हम देखते हैं कि छोटे -छोटे बच्चों को माता -पिता जाने कौन कौन सी चीज़ें सीखने के लिये मजबूर कर देते हैं वो भी उन का बचपन छीन कर,जब खेलने के समय बच्चा तरह तरह की क्लासेज़
attend करेगा तो खेलेगा कब?
आप ने बहुत अच्छी तरह से इस समस्या को उठाया हैअल्लाह से दुआ है कि आप का ये लेख बच्चों का उद्धार कर सके
बहुत बढ़िया और सार्थक पोस्ट …..सरकार ने जो नियम बनया …..वो ये है कि ..बालकलाकार कि उम्र १२ वर्ष कि होनी चाहिए ……और यदि उससे काम उम्र का हो तो माता -पिता कि पूर्ण और बच्चे कि सहमति होनी चाहिए …….ऐसे में ये सब फेम पाने के चक्कर में बच्चों को ..इस भट्टी में फूंका जा रहा है ….जिसका सहयोग माता -पिता भी अच्छे से देते है .
नमस्कार॥
यूँ तो आपके लेख पर अब तक प्राप्त टिप्पणियां स्वयं बयां कर रही हैं की आपने एक ज्वलंत विषय को प्रस्तुत किया है… और वो भी अपने खास अंदाज़ में…सार्थक एवं विचारोतेज्जक लेख…बढ़ायी की आपने पाठकों के मर्म को छोने छुआ और आपकी बात उनके दिल तक पहुंची… मेरे पहले अब तक की ४५ टिप्पणियां इस बात की प्रमाण हैं…
यूँ तो आज के बच्चे बच्चे नहीं रहे वो स्वयम में अतिम्ह्त्वाकंक्षी हैं उनको लगता है की उनके माता पिता जो कर रहे हैं वो उनसे ज्यादा अच्छा कर सकते हैं। हमें उन्हें हतोत्साहित नहीं करना है पर साथ ही इसका ध्यान अवश्य रखना है की हम उन्हें बच्चे ही माने और उनसे बड़ों के जैसे सपने या अभिलाषाएं न जोड़ लें…यदि हम ऐसा करते हैं तो उनका बचपन छीन लेंगे।
मेरा अपना भतीजा एक दिन मुझसे बोला की चाचा मुझे एक टलेंट हंट शो में हिस्सा लेना है…और पापा मन कर रहे हैं तो आप मुझे फॉर्म दिलवा दें न। मैंने उसे समझाया देखो बेटा एक बात बताओ…अभी आप की उम्र क्या है…वो बोला १० साल… मैंने कहा बेटा एक बात बताएं ये जो बच्चे ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं वो ६-७ महीने तो मुंबई वगैरह में रहते होंगे॥ वो बोला हाँ वो तो है…तो में बोला की आप बताएं की अगर आप पुरे साल में ६-७ महीने वहां रहेंगे तो आपकी पढाई कैसे होगी… और अगर आप ठीक से पढेंगे तो जो उस कार्यक्रम में भाग लेने से मिलेगा उस से कहीं ज्यादा आप वैसे ही कमा लेंगे… है न… बच्चे को मेरी बात समझ में आ गयी और वो मान गया…ये तो एक पक्ष हुआ पर अगर वो न मानता तो…? तब तो हमें उसके साथ उसकी मर्जी के मुताबिक काम करना पड़ता न…
जहाँ तक बच्चों की महत्वाकांक्षा को जगा कर या उन्हें प्रताड़ित करके कोई अभिभावक उनसे कोई कार्य लेते हैं तो वो सर्वदा गलत है। इस से बच्चों का बचपन छीन जाता है… और वो बच्चे स्वाभाविक रूप से बड़े नहीं हो पाते…
हम सबकी यही चाह है की बच्चे बच्चे ही बने रहें और एक स्वाभाविक जीवन जियें पर साथ ही ये भी नहीं भूलना चाहिए की इस ज़माने के बच्चे, बच्चे नहीं रहे….
सुन्दर आलेख…
दीपक शुक्ल…
बहुत सारगर्भित आलेख!
हाँ ये सच है कि सिर्फ पैसे और नाम के लिए इन बच्चों का बचपन छीना जा रहा है, लेकिन ये शिखा ये भारत है, यहाँ कानून होते हैं सिर्फ दस्तावेजों में दिखने के लिए उनका क्रियान्वयन कितना होता है? अगर माँ बाप ने ठान दिया कि बच्चे को इस तरह से प्रयोग करना है तो उनसे बड़ा शुभचिंतक तो कोई हो ही नहीं सकता है. प्रतिभा को दबाना नहीं है लेकिन उसको उभरने के लिए नियमित अभ्यास हो, उन्हें मंच पर नियमित प्रदर्शन के लिए तब लाया जाय या फिर उनकी शिक्षा में व्यवधान न पड़े. नहीं तो पैसे के चक्कर में बच्चे पूर्ण विकास से वंचित रह जाते हैं.
sahi mudde par sahi bat
बहुत ही अच्छा लेख
aapki vajahse ye doosra pahloo jaanne ka mauka mila ..sartak lekh
शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे…
बहुत ही संतुलित और सार्थक लिखा है आपने…सच कहूँ तो यह त्रासद स्थिति बड़ा आहत करती है मुझे भी…
ग्लेमर के चकाचौंध में बच्चों के बचपन को जिस प्रकार तिरोहित किया जा रहा है,इसके दुष्परिणाम जब अभिभावकों और समाज के सामने आयेंगे,तो चाहकर भी कुछ बदला नहीं जा सकेगा…
बहुत अच्छी प्रस्तुति…
अदा जी ! यहाँ नापसंद के चटके इसलिए नहीं लगते कि पोस्ट पसंद नहीं आई ..ये लगाने वाला तो शायद पोस्ट पड़ता ही नहीं ..ये तो अपनी पोस्ट को ब्लोगवाणी में ऊपर लाने के लिए लगाये जाते है दूसरों कि पोस्ट पर ..और कौन लगता है इसका अंदाजा भी है मुझे …मैने तो BV देखना ही बंद कर दिया है ..कोई मायने नहीं रहे उसके अब.
shikha ji,
bahut achhe vishay par aapne likha hai. reality show mein chhote chhote bachche jab pratiyogita mein haarte hain aur jab wo rote hain to aksar meri aankhen bhar jati hai. koi ek hin to jitega, lekin jo haar jate hain unka manobal toot jata hai. baal kalakaaron ka bachpana ho ya aise live show ke pratiyogi bachche unke mata pita hi doshi hain. paisa aur shohrat kamaane ki hod mein bachche apna sahaj jiwan jine se wanchit ho rahe. baal kalakaar kaam karen lekin aapne jo UK ka udaharan diya, wo yahan bhi ho to shayad bachche apne kaam mein khush bhi ho aur sahaj bachpana bhi ji sakein.
bahut achha lekh hai, bahut badhai aapko.
एक विचारणीय विषय पर बहुत ही सराहनीय पोस्ट… बिल्कुल सही कहा आपने शिखा जी .. यह भी उचित नहीं होगा कि बच्चों की प्रतिभा को उजागर होने अवसर न मिले, लेकिन यह कार्य उन मासूमो का बचपन बरकरार रखते हुये ही किया जाना चाहिये. उनकी विशेष प्रतिभा उनके लिए कहीं बोझ न बन जाये, उन्हें बचपन के नैसर्गिक सुखों एवं प्राकृतिक विकास से वंचित न कर दे, इसका पूरा ध्यान रखा जाना चाहिये. जीवन के हर पक्ष की तरह यहाँ भी संतुलन की आवश्यकता है…आज ऐसे ही स्पष्ट किन्तु दृढ़ विचारों की आवश्यकता है, जो ऑंखें खोलने का काम कर सकें. और आपके इस लेख ने वो बखूबी किया है… धन्यवाद सहित,
सादर
मंजु
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