छतीस गढ़ के दैनिक  नवभारत में प्रकाशित एक आलेख.



कुछ समय से ( खासकर भारतीय परिवेश में )अपने आस पास जितनी भी महिलाओं को अपने क्षेत्र  में सफल और चर्चित देख रही हूँ .सबको अकेला पाया है .किसी ने शादी नहीं की या कोई किसी हालातों की वजह से अलग रह रही हैं.

और यह सवाल पीछा ही नहीं छोड़ रहा .कि आखिर जब हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है.और ज्यादातर वह उसकी पत्नी या माँ होती है. तो क्यों एक सफल महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ नहीं होता क्यों एक लड़की अपने पिता या पति का सहयोग पा कर अपना मक़ाम नहीं बना  पाती.
आखिर जब एक पुरुष गृहस्थी और अपने काम में संतुलन बना कर सफल हो सकता है तो क्यों एक  महिला नहीं हो पाती?पीछे मुड़ कर भी देखती हूँ तो इंदिरा गाँधी से लेकर महाश्वेता देवी और विजल लक्ष्मी पंडित, मलिका साराभाई से लेकर अमृता प्रीतम तक.( विवाह के सन्दर्भ में ) सभी सफल चेहरे को अकेले ही पाया है. भले ही इसके कारण चाहे या अनचाहे हालात कुछ भी रहे हों  हालाँकि इनमें अपवाद के तौर  पर किरण बेदी सरीखे कुछ नाम लिए जा सकते हैं.फिर भी ..आखिर इसकी वजह क्या है?
मुझे याद आ रहा है ,
कभी  पकिस्तान की एक मशहूर लेखिका ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि हमारे मर्दों की ताज़ी रोटी खाने की आदत हमारी औरतों की तरक्की में सबसे बड़ी बाधक है.
कमेन्ट थोडा हार्श जरुर कहा जा सकता है और बहुत से लोग इससे असहमत भी हो सकते हैं, परन्तु मैंने गौर किया तो पाया कि बात काफी हद तक शायद ठीक थी हालाँकि इसके लिए जिम्मेदार भी शायद औरत ही है. इस पर बहुत से लोगों का तर्क हो सकता है कि जी आजकल रोटी बीबियाँ बनाती  ही कहाँ हैं ? सारा काम तो मेड  करती है.पर यहाँ इसपर रोटी से हट कर शायद थोड़े वृहद रूप में इस कमेन्ट को देखने की जरुरत है.
क्या यह सच नहीं कि भारतीय समाज में औरत चाह कर भी  घरेलू  जिम्मेदारियों से उऋण नहीं हो पाती. उसकी प्राथमिकताएं हमेशा चुल्ल्हे चौके से जुडी रहती हैं.और जहाँ वो इन सबसे मुँह मोड़कर अपने काम को तवज्जो देना शुरू करती है वहीँ घरेलू  संबंधों में तनाव आ जाता है. और सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से टूट जाता है.
यानि विकल्प दो ही हैं ..या तो गृहस्थी में रहे और अपने कैरियर  से समझौता करे , या अकेली रहे और कैरियर  में सफल हो.
एक मित्र से इसी बाबत कुछ बात हुई तो उन्होंने कहा कि महिलायें हमेशा अपनी योग्यता को किसी की  राय का मोहताज़ बना लेती हैं.
महिलाएं क्यों अपनी योग्यता को किसी दूसरे की राय का मोहताज बना लेती हैं? क्या वे इसलिए पैदा हुईं हैं कि हमेशा दूसरों के मानदंड पर परफेक्ट साबित हों ? क्या उनकी जिन्दगी का मकसद दूसरों को खुश करना ही होना चाहिए?
बात काफी हद तक ठीक लगी मुझे .
पर क्या इस स्थिति के लिए महिलाएं खुद जिम्मेदार नहीं ? क्या खुद में आत्मविश्वास की कमी इसका कारण नहीं ?वे शायद बचपन से ही किसी आश्रय की मोहताज हो जाती हैं. यहाँ तक कि खुद की योग्यता के मापदंड भी वे दूसरों की  राय से स्थापित करती हैं. और ये शुरू से ही स्वाभाविक रूप से शुरू हो जाता है.
कुछ खाने में बनाया है तो चखायेंगी पहले ….कि देखो कैसा बना है और वह  वाकई अच्छा है या नहीं वो सामने वाले के स्वाद पर निर्भर करेगा.उसकी अपनी योग्यता पर नहीं .
कुछ पहनेंगी तो पूछेंगी ..कैसा लग रहा है ??/अब वो कैसा लग रहा है ये भी सामने वाले के मूड पर निर्भर है. कभी पिंड छुड़ाने को कह दिया अच्छा है तो अच्छा मान लिया.कभी मूड खराब है उसने कह दिया हाँ ठीक है तो परेशान कि ..अच्छा नहीं लग रहा. 
पर पुरुष ऐसा कभी नहीं करता.वह कभी कोई डिश बनाएगा भी तो कहेगा देखो क्या लाजबाब बनी है …आखिर बनाई किसने है.. और जैसी भी हो खिलाकर ही दम लेगा.कपडे कैसे भी पहने हों आजतक किसी को पूछते नहीं देखा कि देखो तो कैसा लग रहा हूँ.वे अपनी योग्यता किसी कि राय पर नहीं नापते .ना ही कोई काम महज किसी के मापदंड पर परफेक्ट होने के लिए या किसी को खुश करने के लिए करते हैं.
यानि ज्यादातर महिलायें  दूसरे की राय से अपनी योग्यता के मापदंड निर्धारित करती हैं जो राय वक़्त और इंसान पर निर्भर करती है. अत: जरुरी नहीं सही ही हो.
कभी किसी कारण वश अगर स्थान परिवर्तन करना है तो महिलाएं यही मान कर बैठी होती हैं कि समझौता उन्हें ही अपने काम से करना होगा अगर किसी को अपना काम छोडना पड़े तो वह भी घर कि महिला ही होगी. पुरुष किसी के लिए अपने काम में समझौता करते बहुत कम देखे जाते हैं.बच्चा बीमार है तो महिला ही छुट्टी लेकर घर में रुकेगी, कहीं कोई मेहमान आ गया तो उसकी जिम्मेदारी भी महिला की ही होगी. कहीं आना है जाना हैकैसे जाना है कब आना है सारे फैसले दूसरों की ख़ुशी और सहूलियत को ध्यान में रख कर लिए जाते हैं. यानि कि उसकी प्राथमिकताओं में हमेशा ही घर की जिमेदारियाँ पहले होती हैं. चाहें हम उसे संस्कार कहें या बचपन से देखा माहौल और आदत वह चाह कर भी अपने काम और घर में, अपने काम को ऊपर नहीं रख पाती. और बस इसी तरह चलता रहता है.थोडा ये ..थोडा वो..
और इसी स्वभाव के चलते घर और कार्य क्षेत्र की जिम्मेदारियों के बीच में हमेशा फंसी रहती हैं.खुद नहीं फैसला ले पातीं कि आखिर उनके लिए क्या सही है.अपनी योग्यता का पूरा उपयोग  नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें यही कहा जाता है कि उनकी पहली जिम्मेदारी घर है .अपना १०० % वह अपने काम को नहीं दे पातीं और फलस्वरूप वह मक़ाम नहीं हासिल कर  पातीं जिसकी कि वो हकदार होती हैं.
शायद इसलिए जैसे ही ये आश्रय और जिम्मेदारी ख़तम होती है उनका पूरा ध्यान अपनी योग्यता और कार्यक्षेत्र पर होता है.उसके बंधे  हुए परों को फैलने के लिए पूरा स्थान मिलता है और वो उड़ चलती है.