लन्दन का मौसम आजकल अजीब सा है या फिर मेरे ही मन की परछाई पड़ गई है उसपर.यूँ ग्रीष्म के बाद पतझड़ आने का असर भी हो सकता है.पत्ते गिरना अभी शुरू नहीं हुए हैं पर मन जैसे भावों से खाली सा होने लगा है. सुबह उठने के वक़्त अचानक जाने कहाँ से निद्रा आ टपकती है ऐसे घेर लेती है कि बस ..बिना हाथ,पैर मारे रजाई शरीर नहीं छोडती .किसी तरह बंद सी आँखों में ही नीचे उतरती हूँ. पलकों के अन्दर तब तक सिंक में भरे रात के खाने के बर्तन, सुबह की चाय के गंदे कप मडराने लगते हैं.काली चाय के लिए केटल ऑन करती हूँ .अब तो आँख खोलनी ही पड़ेगी देखना है रात की सब्जी बची है या नहीं , नहीं तो अभी बनानी पड़ेगी जल्दी से कुछ. फिर साफ़- सफाई, नाश्ता उफ़ ..याद आया रात भर खुद से लड़ लड़ कर सोई थी ,बस बहुत हुआ आलस जाने कितने लेख पेंडिंग पड़े हैं. कल सुबह से बस यही काम .ग्रीन टी का एक कप लेकर लग गई हूँ .एक एक घूँट के साथ एक एक काम. निबटाया किसी तरह सब. 


घर शांत हो गया है.खिड़की से बाहर झाँका तो बारिश हो रही है हलकी हलकी. चलो अब शाम तक सुकून है.आज घूमने भी नहीं जाना पड़ेगा.आराम से बैठकर लिख पाऊँगी.जाने कब से एक विषय दिमाग में चल रहा है , शीर्षक भी है. जाने कितनी बार भूमिका बना चुकी हूँ मन ही मन. पर कुछ पंक्तियों के बाद ही सब उलझ सा जाता है.कलम कागज से तो इस मुए कंप्यूटर ने रिश्ता तुड़वा ही दिया सो काली कॉफ़ी का बड़ा सा मग लेकर लैप पर लैपटॉप रख के बैठ जाती हूँ. फिर उसे उठाकर मेज पर रख दिया , नहीं पहले कुछ जरुरी फ़ोन काल्स कर लूं , रोज की दिनचर्या का हिस्सा है.नहीं किया तो वहां से आ जायेगा लिखने के बीच में, और फिर सब गुड़ गोबर. एक के बाद एक २-४ आधे आधे घंटे की काल्स. दिमाग की हरी बत्तियां फिर से पीली हो गई हैं. लैपटॉप पर कम्पोज खुला है.ब्लॉग का डैशबोर्ड भी खोल लेती हूँ. क्या यार आजकल कोई कुछ लिखता भी नहीं, सबने फेसबुक से गठबंधन कर लिया है. और वहां जरा जाना मतलब दल दल ..फिर तो लिख गया लेख.कल ही कोई वहां अच्छी भली सुकून परस्त जिन्दगी में जीने का मकसद ढूंढ रहा था, आज मिला तो कहूँगी शादी कर लो इतने मकसद मिलेंगे कि मकसद ढूँढने का वक़्त भी नहीं मिलेगा.छोड़ो! आज नाश्ता भी नहीं किया, कुछ बना लेती हूँ, बच्चे भी आकर चिल्लायेंगे कि रोज ब्रेड कह देती हो खाने को.रसोई में जाकर पास्ता चढ़ा देती हूँ दिमाग में अब भी वही विषय घूम रहा है मन किया वही पेन कागज लेकर लिख डालूं फिर लगा दुबारा कम्पूटर पर टाइप करना पड़ेगा डबल मेहनत . ,खा पी कर एक ही बार जुटेंगे.


पास्ता की प्लेट और लैपटॉप अच्छा कॉम्बिनेशन है .चलो कुछ तो लिख ही लिया जायेगा.दिमाग की बत्ती फिर हरी हो गई है ,मैं लिखती हूँ , कुछ पंक्तियाँ और फिर कुछ सोचने का ढोंग , फिर कुछ पंक्तियाँ.फिर थोडा ढोंग.थोड़ा सर पीछे टिका कर ऊपर देखा आसमान की तरफ, बीच में छत आ गई , कोई नहीं उसी को देख लो ज्यादातर देखा है बुद्धिजीवियों को वहीँ से आइडियाज मिला करते हैं.पेन तो है नहीं मुँह में दबाने को, पास्ता लगा काँटा ही दबा लिया है. अच्छा बन गया है आज पास्ता, बेसल (तुलसी) का अच्छा फ्लेवर आ रहा है , मिर्च जरा ज्यादा हो गईं। बच्चों को कोक मांगने का मौका मिल जायेगा.जरा एक्सप्लोएटेशन का मौका नहीं छोड़ते. अरे उन्हें क्या कहना सबका यही हाल है. क्या बड़े क्या बच्चे. सबको सौ नहीं,सवा सौ प्रतिशत आजादी मिली हुई है, जिसकी जैसी मर्जी इस्तेमाल कर रहा है,कभी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, कभी मौलिक अधिकारों के नाम पर,कभी सुधारों के नाम पर, कहीं संस्कृति, संस्कार और नैतिकता के नाम पर. जिसका जो मन आये कहता है, जो मन आये करता है.और जिसके पास कुछ नहीं करने को, वो किसी को भी बेवजह गरिया लेता है.आजाद देश के पूरी तरह आजाद नागरिक, समझ में नहीं आता कि व्यवस्था की वजह से भ्रष्टाचार है, या भ्रष्टाचार की वजह से ऐसी व्यवस्था.अरे यही तो.यही तो विषय था “सवा सौ प्रतिशत आजादी”. वाकई छत पर देखने से ख्याल आते हैं.तभी दरवाजे की घंटी बज जाती है ..उफ़ आज इतनी जल्दी समय हो गया बच्चों के आने का ?? 

दरवाजा खोलते ही जैसे कचरियाँ सी बिकने लगी.इस मुहावरे का मतलब अब समझ में आया है, जब मम्मी बोला करती थीं तो हंसी आती थी. ओह हो हो शांत!!! एक एक करके बोलो. बल्कि रुक जाओ थोड़ी देर. काम कर रही हूँ . “अरे पहले सुन लो ना हमारी बात. ये तो सारा दिन ही करती रहती हो. आधा घंटा अभी हमारी बात सुनो”. मन के अन्दर से कोई बोला तो आधा घंटा तुम रुक जाओ. हुह सारा दिन, जैसे और कोई काम ही नहीं है मुझे. पर बाहर से आवाज आई, ठीक है. बोलो!! सुन रही हूँ .और फिर वही रोज का फिक्स्ड ऍफ़ एम्  चालू. जब तक बंद हुआ दिमाग की बत्ती भी लाल हो चुकी थी.और ऍफ़ एम् बजाने वाले अपनी अपनी बत्ती उससे रिचार्ज करके चलते बने थे. 

उफ़ आज का मौसम ही ऐसा है शायद. ये लन्दन की बारिश भी ना, बिन बुलाये मेहमान सी जब तब टपक पड़ती है.पूरा दिन ख़राब कर दिया.अभी तो डिनर भी बनाना है आज ही कल तक का बनाकर रख देती हूँ.फिर कल कोई टेंशन नहीं. आराम से लेख पूरा करुँगी.मैं लैपटॉप का ढक्कन बंद करके फ्रिज का दरवाजा खोल लेती हूँ.ठंडी सी हवा ने फिर दिमाग में सो रहे ख्यालों को जगा दिया है. रोटी की गोलाई में विचार भी गोल गोल घूम रहे हैं.कल शायद बारिश ना हो , सूरज निकला तो उसकी गर्माहट में पक ही जायेंगे ये ख़याल .एक बार पक गए तो ललीज़ तो शर्तिया होंगे.