भाषा – सिर्फ शब्दों और लिपि का ताना बाना नहीं होती. भाषा सम्पूर्ण संस्कृति होती है और अपने पूरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है.

खासकर यदि वह भाषा किसी पाठ्यक्रम में इस्तेमाल की जाए वह भी छोटे बच्चों के तो उसपर थोड़ा विचार अवश्य किया जाना चाहिए. क्योंकि प्रारंभिक शिक्षा और किताबों का उद्देश्य नौकरी दिलाना या साहित्य पढ़ाना नहीं होता बल्कि एक बच्चे के व्यक्तित्व का विकास करना होता है. उसे एक सभ्य, जिम्मेदार और बेहतर नागरिक और इंसान बनाने का कार्य प्रारंभिक शिक्षा करती है. ऐसे में बालक के कच्चे मन पर जो शब्द और भाव आप डालेंगे, खासकर यदि वह विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली किताबों और शिक्षकों के द्वारा डाले गए हों तो वे उनपर गहरा असर डालते हैं और उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं.

अत: यह अति आवश्यक है कि वे किताबों, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ाया जाता है, जिन्हें विभिन्न वर्ग, प्रदेश, और अंचल के बच्चे पाठ्यक्रम के अंतर्गत, औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत पढ़ते हैं, उनमें पढ़ाई जाने वाली सामग्री में भाषा और शब्दों का सावधानी पूर्वक प्रयोग किया जाए.

आंचलिक बोली में या आम बोलचाल की स्थानीय भाषा में और पाठ्यक्रम की किताबों की भाषा में अंतर होता है और वह अंतर होना ही चाहिए. यही सब देखना शिक्षा बोर्ड, शिक्षाविद और लेखकों का काम भी है और फ़र्ज़ भी.

भाषा को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलवाने का झंडा लिए लोगों को एक मिनट रुक कर यह सोचना चाहिए कि जिस भाषा को हम UN तक ले जाना चाहते हैं. कल को उसी के मंच पर खड़ा होकर , आज का कोई बालक यदि संबोधन में कहे – मेरे प्यारे छोरे और छोकरियो !!!

यूँ कुछ आंचलिक भाषाओं में गालियाँ भी सहज रूप से प्रयोग की जाती हैं. तो क्या हम उन्हें बच्चों की पाठ्यपुस्तक में शामिल कर लेंगे?

हालाँकि मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि शब्द कोई बुरा नहीं होता, उसे बोलने और समझने वाले की नियत बुरी हो सकती है. मैं जिस क्षेत्र से आती हूँ वहाँ “लौंडा” “लौंडिया” जैसे शब्द बेधड़क, बेहद सहजता से और आम तौर पर इस्तेमाल किये जाते हैं. जिन्हें वहाँ आम बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु मैं अपने किसी विद्यार्थी को हिन्दी भाषा पढ़ाते या सिखाते समय इन शब्दों का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करुँगी, बेशक वे किसी कोर्स की पुस्तक में ही क्यों न हों.

मुझे एक वाकया याद आ रहा है. अभी कुछ ही वर्ष पूर्व मैं यहाँ (लन्दन) के एक मीडिया हाउस के साथ काम कर रही थी. वे नई भारतीय शिक्षा पद्धति (प्रारंभिक) को लेकर कुछ डॉक्युमेंट्री फिल्म्स बना रहे थे. जिनमें नए, मॉडर्न, व्यवहारिक एवं रोचक तरीके से बच्चों को शिक्षा देने की विधि बताई जा रही थी. मुझे वहाँ एडिटर के साथ एक अनुवादक की भूमिका मिली थी. इसी में एक वाक्य आया “The children got excited about the new method.” मेरे एडिटर के सहायक ने इसका अनुवाद बताया – “बच्चे इस नए तरीके को लेकर उत्तेजित थे” मुझे इस “उत्तेजित” शब्द को लेकर आपत्ति थी. हालाँकि शब्दकोष में यही शब्द था और इसके पक्ष में वह कुछ और हिन्दी भाषियों को भी ले आया था कि इस शब्द में कोई बुराई नहीं है. पर मेरी किस्मत अच्छी थी शायद कि इन फिल्मों के निर्माता, जो कि अंग्रेज थे उन्होंने मुझपर भरोसा किया और उत्तेजित की जगह “उत्त्साहित” शब्द का प्रयोग किया गया.

मेरे लिए भाषा, एक पूरे देश का, उसकी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है और उसके भविष्य का निर्माण भी.

बाकी तो “अभिव्यक्ति की आजादी” सबको है ही. जो मर्जी पढ़ाइये, लिखाइये, सिखाइए – “मेरी मर्जी” भी खूब फैशन में है अब तो.