अपने देश से लगातार , भीषण गर्मी की खबरें  मिल रही हैं, यहाँ बैठ कर उन पर उफ़ , ओह , हाय करने के अलावा हम कुछ नहीं करते, कर भी क्या सकते हैं. यहाँ भी तो मौसम इस बार अपनी पर उतर आया है. तापमान ८ डिग्री से १२ डिग्री के बीच झूलता रहता है. घर की हीटिंग बंद किये महीना हो गया, अब काम करते उँगलियाँ ठण्ड से  ठिठुरती हैं तब भी हीटिंग ऑन करने का मन नहीं करता, मई का महीना है। आखिर महीने के हिसाब से सर्दी , गर्मी को महसूस करने की मानसिकता से उबर पाना इतना भी आसान नहीं. बचपन की आदतें, मानसिकता और विचार विरले ही पूरी तरह बदल पाते हैं. फिर न जाने कैसे कुछ लोग इस हद्द तक बदल जाते हैं कि आपा ही खो बैठते हैं.

लन्दन में पिछले दिनों हुए एक सैनिक की जघन्य हत्या ने जैसे और खून को जमा दिया है।सुना है उन दो कातिलों में से एक मूलरूप से इसाई था, जो 2003 में औपचारिक रूप से मुस्लिम बना , और पंद्रह साल की उम्र में उसके व्यवहार में बदलाव आना शुरू हुआ, उससे पहले वह एक सामन्य और अच्छा इंसान था, उसके स्कूल के साथी उसे एक अच्छे साथी के रूप में ही जानते हैं। आखिर क्या हो सकती है वह बजह कि वह इस हद्द तक बदल गया, ह्त्या करने के बाद उसे खून से रंगे हाथों और हथियारों के साथ नफरत भरे शब्द बोलते हुए पाया गया, यहाँ तक कि वह भागा भी नहीं, इंतज़ार करता रहा पुलिस के आने का। 
कहीं कुछ तो कमी परवरिश या शिक्षा या व्यवस्था में ही रही होगी जो एक सामान्य छात्र एक कोल्ड ब्लडेड मर्डरर में तब्दील हो गया।

सोचते सोचते सिहरन सी होने लगी शिराओं में। ख्याल रखना होगा बच्चों का, न जाने दोस्तों की कौन सी बात कब क्या असर कर जाए, और कब उनकी विचार धारा गलत मोड़ ले ले और  हमें  पता भी न चले। 

ऐसे में जब बेटी किसी बात पर कहती है “आई डोंट बीलिव इन गॉड” तो गुस्से की जगह सुकून सा आता है। बेशक न माने वो अपना धर्म, पर किसी धर्म को अति तक भी न अपनाए,  ईश्वर  को माने या न माने, इंसान बने रहें  इतना काफी है। 

ऐसे हालातों में जमती रगों में कुछ गर्मी का अहसास होता है तो वो सिर्फ उन महिलाओं के उदाहरण देखकर। जिन्होंने इस घटना स्थल पर साहस का परिचय देकर स्थिति को संभाले रखने की कोशिश की। आये दिन स्त्रियों पर होते अत्याचार की कहानियों के बीच यह कल्पना से बाहर की बात लगती है कि  कोई महिला सामने रक्त रंजित हथियारों के साथ खड़े खूनी और पास पड़ी लाश को देखने के बाद भी उस जगह जाकर उस खूनी से बात करने की हिम्मत करती है। महिलाओं और स्कूली बच्चों से भरी उस चलती फिरती सड़क पर वो किसी और को निशाना न बनाए, इसलिए वह उसे बातों में लगाए रखती है.,तो कोई सड़क पर पड़े खून से लथपथ व्यक्ति को बचाने के प्रयास करती है। बिना यह परवाह किये कि उस व्यक्ति का कहर खुद उस पर भी टूट सकता है। 


क्या यह हमारे समाज में संभव था ? हालाँकि रानी झाँसी और दुर्गाबाई के किस्से हमारे ही इतिहास से आते हैं। परन्तु वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और हालातों में सिर्फ किस्से ही जान पड़ते हैं। अपने मूल अधिकारों तक के लिए लड़ती स्त्री, जिसके  बोलने , चलने , पहनने तक के तरीके, समाज के ठेकेदार निर्धारित करते हों , क्या उसमें इतना आत्म विश्वास और इतनी हिम्मत होती कि वह इतने साहस का यह कदम उठा पाती ? क्या अगर मैं वहां होती तो ऐसा कर पाती ?
सवाल और बहुत से दिल दिमाग पर धावा बोलने लगते हैं, जिनका जबाब मिलता तो है पर हम अनसुना कर देना चाहते हैं। वर्षों से बैठा डर और असुरक्षा,व्यक्तित्व पर हावी रहती है, हमारे लिए शायद उससे उबरपाना मुश्किल हो , परन्तु अपनी अगली पीढी को तो उन हीन भावनाओं से हम मुक्त रख ही सकते हैं। बेशक आज समाज की स्थिति चिंताजनक हो , पर आने वाला कल तो बेहतर हो ही सकता है।
इन्हीं ख्यालों ने ठंडी पड़ी उँगलियों में फिर गर्माहट सी  भर दी है, और चल पड़ी हैं वे फिर से कीबोर्ड पर, अपने हिस्से का कुछ योगदान देने के लिए।

(तस्वीरें गूगल इमेज से साभार )