जिंदगी में पहली बार ऐसा हुआ था जब सीजन की पहली बर्फबारी हुई और कोई बर्फ में खेलने को नहीं मचला। हॉस्पिटल के चिल्ड्रन वार्ड में अपनी खिड़की के पास का पर्दा हटाया तो एक हलकी सी सफ़ेद चादर बाहर फैली थी पर खेलने के लिए मचलने वाला बच्चा बिस्तर पर दवा की खुमारी में आराम से सोया हुआ था. मैंने अब सुकून की एक नजर उसपर डाली और सोचने लगी कि अब क्या करूँ. पिछले तीन दिनों में इस वार्ड में उपलब्ध बच्चों की “बॉब दी बिल्डर” से लेकर “हॉरिड हेनरी” तक सभी किताबें मैं पढ़ चुकी थी. और अब उस एक कुर्सी पर बैठकर करने के लिए कुछ नहीं बचा था. बीमार बच्चा अब ठीक हो रहा था और उसका सारा काम नर्सें कर रही थीं. मुझे ध्यान आया कि मुझे घर से वह आधी पढ़ी कैलाश बुधवार जी की किताब ” लंदन से पत्र ” मंगा लेनी चाहिए थी जिसे में पिछले दिनों दिव्या जी के घर से उठा लाई थी और आते समय रास्ते में ही आधी पढ़ गई थी. 


काफी दिलचस्प पत्र हैं उसमें, जो कैलाश जी के अपने बी बी सी के कार्यकाल के दौरान प्रसारित हुए थे. कई दशक बीत गए. मैं शायद तब पैदा भी नहीं हुई होउंगी। पढ़ते हुए मुझे लगता रहा कि कितना फर्क था तब लंदन और भारत के रहन सहन में, जीवन शैली में, मानसिकता में. आज अगर कैलाश जी ऐसे पत्र प्रसारित करते तो उनमे भला क्या लिखते ? अब तो न कपडे धोने की मशीन नई बात रही, न अपना मकान जीवन भर की कमाई और बुढ़ापे की उपलब्धि। खानपान हो या परिधान कोई नई बात नहीं लगती। भारत और पश्चिमी देशों का फरक काफी कम हो गया है. भारत इंडिया बन चुका है. फिर लगा, नहीं कुछ तो है जो अब भी अलग है बल्कि कुछ न कुछ रोज ही दिख जाता है. आखिर पिछले दो साल तक मैंने भी “लंदन डायरी” लिखी ही और अब आगे भी २ साल तक लिखने को मिल जायेगा कुछ न कुछ. दो सभ्यताएं, सात समंदर का फासला, कुछ न कुछ अनकहा तो हमेशा ही रह जायेगा। 


किताब ले आने के लिए घर फ़ोन करने के बाद मैं एक चक्कर वार्ड का लगा आई. हॉस्पिटल में ही देखो कितना फरक है. बस नाम है हॉस्पिटल, पर सब कुछ कितना सहज. नियम हैं जरूर, पर मरीज की सुविधा से बड़े नहीं। नर्सें एक माँ की तरह परवाह करने वाली , प्यार से बोलने वाली और हर मदद को तैयार।मुझे याद आया अपना प्रथम प्रसव का भारत का अनुभव। दर्द के बीच हलकी सी चीख निकलने पर नर्स चिल्लाई थी. “क्यों इतना चिल्ला रही हो, एक अनोखी तुम नहीं हो जो बच्चा जन रही है”. तब मन किया था बस कहीं से मम्मी आ जाएँ और हाथ पकड़ लें.

पूरे वार्ड में छोटे से छोटा और बड़े से बड़े बच्चा था. कुछ की समस्याएं मुझे मालूम थीं कुछ रात में नए आये थे. सामने वाले बिस्तर पर ११ महीने का बच्चा था जो ६ महीने का पैदा हुआ, जो खाता पीता है उलट देता है. आज तीन बाद उसकी माँ को देखा है जो खुद ही १८ साल से ज्यादा की नहीं लगती। तीन दिन से रात- दिन उसका पिता उसके साथ था और अब शायद माँ की बारी थी. देखने- बोलने से टूटे सोवियत संघ के किसी देश के लगते हैं.अपने बच्चे की यह हालत देख बार बार उसके कपड़े बदलने में वह माँ खीज जाती है कभी – कभी।  उन्हें ईश्वर पर बिलकुल विश्वास नहीं। शायद कच्ची उम्र के ऐसे अनुभव का प्रभाव है. वहीं एक बराबर में एक परिपक्व दक्षिणी एशियन माँ है जिसका १४ साल बेटा पता नहीं किस बिमारी से ग्रसित है वह छ: महीने पहले अपने देश गया था वहां जाने क्या देखा, क्या हुआ, आते ही अपनी बोलने , चलने , खाने -पीने  सबकी क्षमता खो बैठा और अब नलियों पर ज़िंदा है. तब से इस माँ बेटे का यह हॉस्पिटल ही अस्थाई घर है. वे हर शनिवार घर चले जाते हैं और सोमवार को वापस आ जाते हैं फिर मिलने- जुलने वाले आते रहते हैं पर वह माँ वहां से नहीं हिलती। उस माँ को ईश्वर पर ही भरोसा है. यहाँ तक कि वह उसका धार्मिक कर्मकांडों से इलाज कराने की बात करती है. वह उस कम उम्र माँ को भी समझाती है कि, उसे भी ऊपर वाले पर यकीन करना चाहिए, सब ठीक हो जायेगा।
मैं सोचती हूँ शायद यही भरोसा है जो एक माँ को सकारात्मक ऊर्जा दिए रखता है और दूसरी को उकताहट। 
इस एक ही वार्ड में जाने कितनी कहानियाँ हैं. कुछ और अगली पोस्ट में. जल्दी ही.