दुनिया की सबसे स्वार्थी, जीरो नैतिक मूल्य और असंवेदनशील कौम साबित हो रहे हैं हम.

यह सही है कि किसी भी आपदा या महामारी के लिए कोई भी देश, बेशक कितना भी विकसित और संपन्न क्यों न हो, कभी तैयार नहीं हो सकता. पिछले साल जब इटली, फ़्रांस, स्पेन, यूके जैसे देशों से भयावह खबरें आ रही थीं तब वहां भी हालात काबू से बाहर थे. उस समय न तो कोई दवा, प्लाज्मा था, न ही वेक्सीन. यहाँ तक कि टेस्ट, मास्क और पी पी ई किट तक नहीं थे. इन देशों में भी लोग घरों में दम तोड़ रहे थे और दुनिया के सबसे संपन्न और व्यवस्थित कहे जाने वाले हेल्थ सिस्टम की धज्जियां उड़ी दिखाई पड़ रही थीं. न स्टाफ था, न अस्पताल, न वेंटिलेटर न ही टेस्ट. कब्रिस्तानों में जगह नहीं थी. और अस्पतालों में बिस्तर नहीं थे. इटली, फ्रांस जैसे देशों के नेता जनता के आगे हाथ जोड़ कर अपनी बेबसी पर रो दिए थे. तब बेशक नागरिकों ने सरकार और सिस्टम को कोसा, उन्हें आड़े हाथों लिया, शिकायत की, लताड़ा पर मनुष्यता की खातिर खुद मैदान में आ खड़े हुए. जिससे जो बन पडा उसने किया. औरतों ने घरों में मास्क और पी पी ई किट बनाकर बाँटें. घर घर में पता कर के लोगों को भोजन पहुँचाया. आसपास के बुजुर्गों का पता करके उनके लिए राशन और दवाओं की व्यवस्था की. खाने के डिब्बे बना बनाकर अस्पताल पहुंचाए गए. जो लोग अपनी जान पर खेल कर फ्रंट लाइन पर काम कर रहे थे उनके लिए भी जिससे जो बन पडा किया. लोगों ने फूल भेजे, जरुरत का सामान भेजा और उनके लिए कुछ आसानी हो सके इसलिए स्वयं घर से बेवजह निकलना बंद किया. (हालाँकि चीन जैसा सख्त लॉक डाउन कहीं नहीं था).

उस भयावह समय में हम उन्हें असंवेदनशील कह रहे थे क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को अकेले मरने के लिए छोड़ दिया था. हमारे लिए ये सब राजनीति का खेल था बस. हम भारतीय, संस्कारी लोग थे. हमारा कोरोना जैसा वायरस कुछ नहीं बिगाड़ सकता था. हम खुलेआम वह सब कर रहे थे जो हम करते आ रहे थे क्योंकि हम भारत भूमि की पैदाइश थे. जाने कैसे कैसे कीटाणु हम रोज अपने शरीर के हवाले करते थे तो यह एक वायरस क्या चीज था. हम आराम से बैठकर दुनिया की बेबकूफी, असमर्थता और संस्कार विहीनता पर चर्चा कर रहे थे. हम यह सोचने को भी तैयार नहीं थे कि अगर ये स्थिति भारत में हुई तो क्या विनाश हो सकता था. किसी ने समझाने की कोशिश भी की तो उसे यह कह कर लताड़ दिया गया कि यह अमीरों की बीमारी है हम गरीब तो इसे अपना काढ़ा पीकर ही झेल जायेंगे. और फिर वही हुआ जिसका डर था. एक विस्फोट हुआ और भारत इटली से भी बद्दतर हालत में पहुँच गया. लखनऊ, कानपूर की हालत बुहान जैसी हो गई और फिर शुरू हुआ हमारे संस्कार और संस्कृति को दिखाने का सिलसिला. सिस्टम तो जो था वह था ही. रातों रात तो वह बदलने वाला नहीं था. पर जहाँ कुछ मुट्ठी भर लोग अपनी जी जान लगाकर, हर तरह से हर किसी की मदद करने के लिए मैदान में कूद पड़े, सोशल मीडिया का इससे बेहतरीन प्रयोग पहले कभी देखने को नहीं मिला. वहीँ शुरू हुई कालाबाजारी, जमा खोरी की परकाष्ठा. प्रभावी और संपन्न लोगों की स्वार्थ की हदें छोटे लोगों का जुगाड़ भी ले डूबीं. धोखाधड़ी, लूटपाट और शोषण अपने चरम पर पहुँच गया. हर तरफ मौत का तांडव था पर लाशें उठाने और उनका क्रियाकर्म करने वाला भी कोई नहीं था. अपने स्वार्थ और पैसे की हवस में लोग यह भूल गए कि प्रकृति और जीवन का यही नियम है कि आज जो वे कर रहे हैं, जो दे रहे हैं वही लौट कर उनके पास आएगा और फिर न यह पैसा और न ही यह कोई जमाखोरी वे अपने सीने पे उठाकर ले जा पाएंगे. यह वक़्त है जब आप दूसरों को बचाने का प्रयत्न करोगे तभी खुद को बचा पाओगे. वरना सब धरा यहीं रह जायेगा और …

अभी भी संभल जाइये अपनों की लाश पर पैसा इकठ्ठा कर के आप करेंगे भी क्या. कहीं दवा की जगह पानी का इंजेक्शन दिया जा रहा है तो कहीं किसी की मजबूरी का फायदा उठाकर शारीरिक शोषण तक की खबरें आ रही हैं. मानवता ने जैसे अपना वजूद खो दिया है.

सरकार को, सिस्टम को बाद में कोस लेंगे. मीम्स, चुटकुले बनाने का या अपने प्रतिद्वंदी से नफरत और दुश्मनी निकालने का समय भी बहुत मिलेगा यदि बचे तो…

फिलहाल थोड़ी मानवता दिखाइये. वरना न प्यार जताने के लिए कोई बचेगा न दुश्मनी निभाने के लिए कोई मिलेगा.

हालात ये हैं कि न जीते जी दवा देने वाला कोई है, न मरने पर कोई कन्धा देने वाला. कहीं ऐसा वक़्त न आये कि श्रधांजलि के दो शब्द कहने वाला भी कोई न हो.