अंधेरों के दरवाजों में ताले नहीं होते. उनकी चाबियाँ भी नहीं होतीं. इसलिए उन्हें लॉक नहीं किया जा सकता. बस भेड़ा जा सकता है जो मिलते ही ज़रा सी नकारात्मकता की ठेल, खुल जाते हैं और फ़ैल जाता है सारा अँधेरा आपके मन मस्तिष्क पर. उसमें खो जाता है आपका अस्तित्व और गुम हो जाते हैं आप. नहीं दिखाई पड़ते किसी को भी. फिर बहुत मुश्किल होता है उसके दरवाजों को फिर से बंद करना. लगानी पड़ती है पूरी शक्ति सकारात्मकता की. समेटना पड़ता है पूरा वजूद, और लगाए रखनी पड़ती है एक टेक रौशनी की, कि फिर न खुल सके वह दरवाजा अँधेरे का.
अंधेरों के पाँव नहीं होते. वे खुद चल कर नहीं आते. उन्हें बुलाया जाता है, फिर फैलाया जाता है और कभी कभी बसाया भी जाता है. बहुत लचीले होते हैं अँधेरे. कहीं भी, कैसे भी पसर जाते हैं और यूँ ही कभी भी छिटक कर बिखर जाते हैं या निकल जाते हैं. अधिक दिनों तक कहीं नहीं टिकते अँधेरे. अधिक जगह भी नहीं घेरते. उजास की आहट हुई नहीं कि खुद गुम हो जाते हैं ये अँधेरे.
रात को गर ओढ़ लो लिहाफ बनाकर तो वह डराती नहीं, सुकूँ देती है। थपकियाँ देकर चांदनी सुला देती है।फिर सुबह की धूप गुनगुनाती है पलकों पर तो आंखें खुलकर ताज़ी फ़िज़ा में टहलतीं हैं।ख़्वाब लेते हैं फिर से अंगड़ाई, नई उम्मीदें जन्म लेती हैं।नरम घास पे बिछी ओस की बूंदों में, फिर जिंदगी चमकने लगती है।